विचारणीय

गीता कहती है - संशयात्मा विनश्यति अर्थात् सदा संशय करनेवाला, दूसरों को संदेह की दृष्टि देखनेवाला, अविश्वासी एवं अनियंत्रित व्यक्ति क्षय को प्राप्त होता है।

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

हौसलों की उड़ान


दोस्तों, व्यक्ति चाहे कैसा अथवा कोई भी क्यों न हो, यदि वह अपने बुलंद हौसलों से मंजिल की ओर कदम बढ़ाता है तो सफलता अवश्य मिलती है.

आज मैं आपसे एक ऐसे व्यक्ति की कहानी share करने जा रहा हूँ जिसने केवल अपने हौसलों के बल पर एक पहाड़ को झुकने पर मजबूर कर दिया.

यह कहानी बिहार के गहलोर घाटी के एक गाँव की है. एक समय यह गाँव चारों ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ था. किसी कारणवश यदि गाँव वालों को शहर में जाना होता तो उन्हें पहाड़ों के ऊपर से होकर गुजरना पड़ता था जो की काफी जोखिम भरा काम था और इसमें काफी समय भी लग जाता था. गाँव वाले स्थानीय अधिकारियों से इसकी गुहार लगाते पर कोई नतीजा नहीं निकला.

उस वक्त गाँव में दशरथ मांझी नाम का एक व्यक्ति रहता था, जिसकी उम्र 24 वर्ष था. वह काफी जोशीला और कर्मठ था. वह रोजगार के सिलसिले में प्रतिदिन औरों की तरह इन खतरनाक पहाड़ी को पार कर उस ओर जाता था. एक दिन उसकी पत्नी फाल्गुनी जो उसके लिए हमेशा की तरह खाना लेकर आ रही थी, पहाड़ी पर फिसल गयी जिससे उसे गंभीर चोट आयी और उसके टकने टूट गए.

दशरथ को इस घटना ने काफी विचलित और अशांत कर दिया. जब मन थोड़ा शांत हुआ तब उसने परिस्थिति को बदलने का निश्चय किया. उसने पहाड़ी के बीच से रास्ता बनाने का निश्चय कर लिया.

दशरथ कोई इंजीनियर नहीं था और न ही उसके पास कोई आधुनिक हथियार. हाथों से इस्तेमाल होने वाले औजारों यानि की हथोडा और चैनी को लेकर सन 1960 में एक दिन अतरी से लेकर वजीरगंज के लिए पहाड़ों के बीच से रास्ता बनाने का काम शुरू कर दिया.

लोगों को लगा कि कुछ ही दिन में दशरथ के सिर से पहाड़ी के बीच से रास्ता बनाने का भूत उतर जायेगा. समय बीतता गया. धीरे-धीरे दिन महीनों में बदलने लगे. दशरथ अब पूरा समय केवल रास्ता बनाने में लगा रहा था इसलिए उसी स्थान पर उसने अपने लिए एक कुटिया भी बना लिया.

जब औजारों की कमी होने लगी तो उसने अपनी सारी भेड़े बेच दी और उन पैसों से अपने लिए नए औजार खरीद लिए. अब दशरथ के लिए दिन और रात में कोई फर्क नहीं रह गया था. वह काम में इतना लीन हो जाता की खाने की भी सुध नहीं लेता.

इस बीच अचानक फाल्गुनी की तबीयत बिगड़ गयी और चिकित्सा के अभाव और जल्दी से शहर के अस्पताल में जाने का कोई रास्ता न होने की वजह से फाल्गुनी की मृत्यु हो गयी.

इस घटना ने दशरथ के फौलादी इरादों को एक दिशा दे दिया. अब उसे अपने निर्णय का महत्व पहले से और अधिक सही जान पड़ा. जो कोई संका मन में रास्ते को बनाने के विषय में थी वह अब साफ़ हो चुका था. अब वह पहले की अपेच्छा और अधिक तेजी से काम करने लगा. धूप-बारिश, अन्न-जल जैसे कोई भी दशरथ के इरादों को तोड़ नहीं पाया.

देखते ही देखते 10 वर्ष बीत गए. अब लोगों को दशरथ के अब तक के कार्य से अंतर दिखने लगा. जहाँ से रास्ते का काम आरंभ हुआ उन जगहों पर से चढ़ाई थोड़ी आसान हो गयी थी. रास्ता समतल होने की वजह से अब पहले की तुलना में चलने के लिए सरल लगने लगा.

अब लोगों का नजरिया दशरथ के प्रति बदलने लगा था. लोग उन्हें सम्मान की दृष्टी से देखने लगे. गाँव वाले उन्हें अब “पहाड़ मानव” कहकर पुकारने लगे जो दशरथ के लिए किसी भी बड़े सम्मान से कम नहीं था. अब लोग भी धीरे-धीरे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रुप से दशरथ के काम में सहयोग देने लगे.

समय तो जैसे पंख लगाकर उड़ रहा था. देखते ही देखते बीस वर्ष बीत गए. 1982 को यानि की लगभग 22 साल के अथक परिश्रम का फल दशरथ को मिल गया. रास्ता अब पूर्ण तैयार हो गया था.

दशरथ ने गहलोर की घाटियों के मध्य 110 मीटर लम्बा, 7.6 मीटर ऊँचा और 9.1 मीटर चौड़ा रास्ता बना दिया जिससे अतरी से लेकर वजीरगंज तक की दूरी पहले जहाँ 55 किलो मीटर थी वह अब घटकर मात्र 15 किलो मीटर रह गयी.

“पहाड़ मानव” यानी की दशरथ मांझी अब हमारे बीच नहीं रहे. उनकी मृत्यु 2007 में हुई. परन्तु असल जिंदगी में दशरथ किसी भी हीरो से कम नहीं हैं. उनका जीवन हमेशा प्रेरणा का स्रोत बनकर हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा.

दोस्तों किसी ने सच ही कहा है, “बुलंद हौसलों के आगे पहाड़ भी छोटा लगने लगता है.”

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