विचारणीय

गीता कहती है - संशयात्मा विनश्यति अर्थात् सदा संशय करनेवाला, दूसरों को संदेह की दृष्टि देखनेवाला, अविश्वासी एवं अनियंत्रित व्यक्ति क्षय को प्राप्त होता है।

मंगलवार, 31 मार्च 2015

Yoga TIPS in Hindi

भारतवर्ष को योगभूमि (योग के विभिन्न आसन लगाने वालों की भूमि अथवा योगियों की भूमि) कहा गया है. ‘योग’ संस्कृत के ‘युज’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘संगठन’. दूसरे शब्दों में कहा जाये तो शरीर को संगठित करने की प्रक्रिया ही योग है.

प्राचीन भारत में योग काफी प्रचलित था. परन्तु यह भी समाज के कुछ वर्गों तक ही सीमित रहा. इसे प्राचीन भारत की विड़म्बना ही कहिये. निम्न वर्गों के लिये योग निषिध्द था. परन्तु आधुनिक भारत में परिस्थितियाँ बदली  है. अब यह किसी के लिए अछूता नहीं रहा. भारतवर्ष का यह प्राचीन धरोहर आज पूरे विश्व में सीना ताने ‘योग भगाए रोग’ नाम से प्रसिद्ध हो चुका  है.
योग न केवल ध्यान साधना में मददगार है बल्कि शरीर की देखभाल के लिए कारगर सिद्ध हो रहा है. इसके नियमित अभ्यास से जीवन के हर क्षेत्र में हम लाभान्वित होंगे.

तो चलिए एक-एक कर योग के कुछ आसन और उससे होने वाले लाभ से परिचित होते हैं –

१. सिद्धासन



  • यह काफी सरल आसन है परन्तु ध्यान की दृष्टी से अत्यंत महत्वपूर्ण है.
  • योग की यह प्रक्रिया मन को केन्द्रित करने में सहायक है.
  • ध्यान और साधना की दृष्टी से यह आसन सबसे उपयुक्त है.

२. भद्रासन



  • यह आसन पाचन-प्रक्रिया को सुधारता है.
  • इस आसन को करने से जांघ, घुटने, पैरों की उँगलियाँ मजबूत होती हैं.

३. वज्रासन



  • यह आसन पीठ की दृष्टी से लाभदायक है.
  • इससे पीठ सीधी रहती है.
  • इससे पैरों को मजबूती बढ़ती है.

४. पश्चिमोतासन




  • यह आसन रीढ़ (Backbone) में लचीलेपन को बरकरार रखता है.
  • टापा घटाता है.
  • ललाट (चेहरे) पर चमक लाता है.
  • रक्त संचालन (Blood Circulation) प्रक्रिया सही रहता है.

उपर्युक्त सभी आसन काफी सरल परन्तु प्रभावशाली है. इसके अलावाऔर भी कहीं सारे आसन पद्दतियाँ हैं जिन्हें आवश्यकता के अनुरूप अपना सकते हैं. परन्तु केवल कुछ दिनों के अभ्यास से लाभ संभव नहीं है. यह एक धीमी प्रक्रिया है. दीर्घकाल में इसका अचूक परिणाम देखा गया है.

आप भी अपने घरों में इन आसनों को अपनाकर अपने परिवार को आरोग्य एवं ऊर्जावान बनाये और स्वस्थ भारत के निर्माण में योगदान दे.

तो चलिए संसार से रोगों का नामोनिशान मिटाने की राह में एक कदम आगे बढ़ाएं.

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शुक्रवार, 27 मार्च 2015

बुद्धि का बल Tenali Ramana Special



दोस्तों, वह व्यक्ति जो अपनी बुद्धि का प्रयोग मुश्किल, चुनौतिपूर्ण तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना नियन्त्रण खोए बिना करता है वह ज्ञानी होता है. आज हम ऐसी ही परिस्थितियों से जूझते तेनाली रामकृष्ण की एक सच्ची घटना आपलोगों से Share करना चाहेंगे.


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एक बार काशी से एक सुप्रसिद्ध विद्वान अपने शिष्यों सहित पूरे उत्तर भारत में भ्रमण कर वहाँ के प्रसिद्ध विद्वानों को वेद, उपनिषद् एवं शास्त्रों से संबंधित विषयों पर वाद-विवाद (Debates) प्रतियोगिता में परास्त करते हुए दक्षिण भारत के प्रसिद्ध विजयनगर राज्य में पधारे.

विजयनगर के राजा कृष्णदेवराय ने विशेष अथिति के रूप में उनका राजदरबार में स्वागत किया.

राजदरबार में पहुँचते ही काशी विद्वान ने राजा से कहा, “महाराज, मैंने सुना है कि आपके दरबार में कहीं नामी विद्वान हैं. मैं उन सबको वाद-विवाद प्रतियोगिता में चुनौती देता हूँ. अगर मैं परास्त होता हूँ तो मैं अपनी सारी उपाधियां विजेता को समर्पित कर दूंगा. अगर वे सब हार जाते हैं तो लिखित रूप में उन्हें मुझे अपना गुरु स्वीकार करना होगा.”

कृष्णदेवराय ने काशी विद्वान से विनम्रतापूर्वक कहा, “प्रतियोगिता कल होगी” और उन्हें राज-सत्कार के साथ अथितिशाला (Guest house) में ठहराया.

तत्पश्चात राजा कृष्णदेवराय अपने दरबार के विद्वानों की ओर दृष्टी कर कहा, “आपमें से कौन इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहेंगे?

काशी विद्वान का अति-आत्मविश्वास और ध्वनि की गंभीरता ने दरबार में मौजूद विद्वानों के मन में पहले ही हलचल पैदा कर दिया था. इसलिए वे सब सिर झुकाकर शांत मुद्रा में अपनी असहमति जाहिर की.

राजा को आश्चर्य हुआ. गुस्से में कहा, “तो ऐसे विद्वानों से हमारा दरबार भरा हुआ है” और वे तत्काल दरबार से बाहर चले गए.

तब तेनाली रामकृष्ण ने कहा, “अगर हम महाराज के सम्मान की रक्षा नहीं कर पाये तो ये हम सबके लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात होगी. मैं इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए तैयार हूँ.”

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तेनाली रामकृष्ण की स्वीकृति सुनकर अन्य विद्वानों की जैसे जान में जान आयी. तेनाली रामकृष्ण के निर्णय पर राजा कृष्णदेवराय को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि तेनाली रामकृष्ण अब तक एक कवि के रूप में प्रसिद्ध थे.

अगले दिन तेनाली रामकृष्ण पूरे उत्साह और आत्मविश्वास के साथ राजदरबार में प्रविष्ट होता है. उस वक्त वह कश्मीरी सिल्क की धोती और कीमती शाल पहन रखा था. उनका पूरा माथा चन्दन और विभूति से दमक रहा था. उनका गला अनेक कीमती रत्नों से जड़ित मेडलों से ढँक गया था. आगे-आगे दरबार के अन्य विद्वानगण तेनाली रामकृष्ण की महानता का गुणगान करते हुए चले आ रहे थे और पीछे तेनाली रामकृष्ण सोने से बनी ईंटो पर चले आ रहे थे जो नौकरों ने उनके लिए पर्श पर बिछा रखे थे.

इतना सबकुछ देखकर काशी विद्वान का माथा जरा ठनका. मन में थोड़ी बेचैनी बढ़ी.

तेनाली रामकृष्ण जो अपने हाथ में एक बड़ी सी पुस्तक पकड़े हुए थे, जो कीमती सिल्क के कपड़े से ढँकी थी को टेबल पर रखा और चारों और देखते हुए गंभीर मुद्रा में तेज ध्वनि से कहा, “किस विद्वान ने मुझे वाद-विवाद के लिए चुनौती दी है ?”

तेनाली रामकृष्ण की साही दिखावट ने पहले ही काशी विद्वान को अचंभित कर दिया था. परन्तु जल्द ही सम्हलकर कहा, “मैंने आपको चुनौती दी है.”

राजा ने प्रतियोगिता प्रारंभ करने का संकेत दिया.

तेनाली रामकृष्ण ने अपनी ऊँगली को टेबल के ऊपर रखी पुस्तक की ओर इशारा कर कहा, “चलिए हम इस पुस्तक से संबंधित विषयों पर वाद-विवाद करते हैं. इस पुस्तक का शीर्षक (Title) है तिलकश्तामहिशाबंधना.”
पुस्तक का नाम सुनते ही काशी विद्वान के जैसे होश उड़ गए. उसने अपने जीवन में अनगिनत पुस्तकें पढ़ी थी परन्तु इस पुस्तक की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी.

काशी के विद्वान ने राजा से कहा, “महाराज, इस पुस्तक को पढ़े काफी समय गुजर चुका है. इसलिए आज रात मैं इसे पढ़कर कल दरबार में वाद-विवाद के लिए आज्ञा चाहता हूँ.”

पूरी रात काशी विद्वान ने उस पुस्तक के बारे में सोचने में गुजार दी परन्तु कोई हल नहीं मिला. तिलकश्तामहिशाबंधना उनके लिए अभी भी एक पहेली ही थी. इसलिए, कहीं वह कल दरबार में हार न जाये इसी भय और आशंका से अपना सारा सामान समेटकर सुबह होने से पूर्व ही भाग खड़ा हुआ.

अगले दिन ये खबर सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही प्रसन्नता भी. राजा ने तेनाली रामकृष्ण से पूछा, “जिस पुस्तक का केवल नाम मात्र सुनकर काशी विद्वान मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ वह जरुर विशेष होगा.”

तेनाली रामकृष्ण (राजा से) – महाराज, ये कोई विशेष पुस्तक नहीं है. ‘तिला’ का अर्थ है ‘शीशम’, ‘कस्ता’ का अर्थ है ‘लकड़ी’, ‘महिशा’ का अर्थ है ‘भैस’ और ‘बंधन’ का अर्थ है ‘रस्सी’. मैंने इन सबको जोड़कर तिलकश्तामहिशाबंधना कहा था.

तेनाली रामकृष्ण की बातें सुनकर राजा कृष्णदेवराय अपनी हँसी रोक नहीं पाए. उसने तेनाली रामकृष्ण की प्रशंसा की और उन्हें पुरस्कार दिया.

दोस्तों ऐसा ही एक प्रसंग हमने आमिर के थ्री-इडियट मूवी में देखा था जहाँ आमिर ने अपने दोस्तों के नामों को जोड़कर एक शब्द बनाकर छात्रों से उसका अर्थ बताने को कहते हैं.

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सोमवार, 23 मार्च 2015

संतोषी सदा सुखी भवः




दोस्तों, पिछले एक वर्ष से मैं कुछ दोहे लिख रहा हूँ. उपर्युक्त दोहा उसी का एक हिस्सा है. इसी दोहे को आधार मानकर एक ज्ञानवर्धक कहानी आपलोगों से साझा करने जा रहा हूँ.

केरल के एक गाँव में मोची का एक परिवार रहता था. मोची का नाम राजू था. वह बहुत ही खुबसूरत जूते तैयार करता था. रोज वह केवल दो जोड़ी जूते तैयार कर उन्हें शहर में बेच आता था.
एक दिन गाँव में एक व्यापारी आया. उनकी नजर राजू के जूतों पर पड़ी. उसे जूते बहुत पसंद आये.

व्यापारी (राजू से) – तुम रोज कितना कमा लेते हो ?

राजू – सेठ जी, दो जोड़ी के सौ रुपये रोज कमा लेता हूँ.

व्यापारी (आश्चर्य से) – क्या इतने में तुम्हारे परिवार का गुजारा आसानी से हो जाता है ?

राजू – जी हाँ सेठ जी, इससे मेरे परिवार की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है.

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व्यापारी – राजू तुम बहुत ही खुबसूरत जूते बनाते हो. तुम कुछ और जूते तैयार कर बेच सकते हो. इससे तुम्हारी आमदनी भी बढ़ेगी. अच्छा ये बताओ तुम अपने बचे हुए समय में क्या करते हो ?

राजू – मैं सुबह देर तक सोता हूँ. उसके बाद जूते तैयार कर बेच आता हूँ. वापस आकर अपने बच्चों के साथ कुछ समय खेलता हूँ और पत्नी के साथ समय बिताता हूँ. शाम के वक्त गाँव में घूम कर चाय की चुस्कियां लेते हुए लोगों से गप्प लड़ाता हूँ. रात होते ही घर चला आता हूँ और भोजन कर जल्दी सो जाता हूँ. इस तरह पूरे दिन मैं व्यस्त रहता हूँ.

व्यापारी – मेरी मानों तो तुम कुछ और अधिक जोड़ी जूते तैयार करना शुरू कर दो. इससे तुम्हारी आमदनी बढ़ेगी. कुछ वर्षों बाद तुम शहर में अपना खुद का दुकान खोल लेना. इससे तुम्हारी आमदनी और अधिक हो जाएगी. इस बीच कुछ और कारीगरों को तैयार कर लेना ताकि अधिक जूते तैयार कर सको. कुछ वर्षों बाद तुम अन्य शहरों में भी अपनी दुकानें खोल लेना. इस तरह कुछ ही वर्षों में तुम लखपति हो जाओगे. आगे चलकर अगर भाग्य का साथ रहा तो जल्द ही तुम्हें विदेशों से भी जूते की मांग की आपूर्ति का आदेश मिल सकता है. इस प्रकार कुछ और वर्षों में तुम करोड़पति बन जाओगे.

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राजू (आश्चर्य से) – परन्तु सेठ जी, ये सब होने में कितना समय लगेगा ?

व्यापारी – यही कोई 20-25 वर्ष.

राजू – और उसके बाद मैं क्या करूँगा ?

व्यापारी – इसके बाद तुम्हें काम करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. तुम काम से अवकाश (Retirement) प्राप्त कर अपने गाँव लौट आना. यहाँ तुम सुबह देर तक सोना. मन करे तो दो जोड़ी जूते तैयार कर शहर में बेच आना. अपने बच्चों से खेलना और अपनी पत्नी के साथ समय बिताना. शाम के वक्त गाँव में घूम कर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए लोगों से गप्प लड़ाना. रात होते ही जल्दी से भोजन कर सो जाना और इस तरह तुम अपना शेष जीवन आरामपूर्वक बिता सकोगे.

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शुक्रवार, 20 मार्च 2015

Geeta in Hindi


गीता का ज्ञान


दोस्तों, गीता को केवल एक ज्ञानवर्धक पुस्तक न मान कर इसे जीवन का दर्शन शास्त्र मानना सही होगा. घनी अँधेरी रात में यह हमें एक दीपक की भांति जीवन जीने की प्रेरणा देता है. काफी विचारने के बाद मैंने अपने ब्लॉग में इस विषय को चुना. इस ज्ञान को केवल महाभारत युद्ध से न जोड़कर अपने जीवन, जीने की पद्धति से जोड़े तो अधिक लाभदायक सिद्ध होगा.

Chapter 01:
प्रथम अध्याय को ‘अर्जुन-विषाद योग’ कहा गया है. मनुष्य यानि हम लोग संशय (confusion) में पड़कर अपने कर्तव्य से मुख मोड़ लेते हैं. इसलिए इस अध्याय को ‘संशय-विषाद योग’ भी कहना गलत न होगा. संशय का मुख्य कारण है मोह. कहीं बार मोह के वसीभूत होकर हम सही-गलत की पहचान नहीं कर पाते.

Chapter 02:
द्वितीय अध्याय को ‘कर्म-जिज्ञासा’ नाम भी दे सकते हैं. हमारा शरीर नस्वर है परन्तु हमारी आत्मा अमर है. चिंताओं और कष्टों से निजाद पाने के हमारे पास दो विकल्प हैं – पहला विकल्प, अपनी बुध्दि व विवेक द्वारा सही-गलत का अंतर जानते हुए अपना कर्म करना और दूसरा विकल्प, भक्ति के मार्ग में चलते हुए अपना कर्म करना. दोनों ही विकल्पों में कर्म को प्रधानता दी गयी है. परन्तु कर्म की परिभाषा क्या है ?

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Chapter 03:

राग-द्वेष से दूर, बिना किसी फल की इच्छा किये अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिये. काम-क्रोध, आशा-तृष्णा, राग-द्वेष हमारे शत्रु हैं. इन पर विजय पाने की प्रक्रिया को कर्म कहा गया है. इस अध्याय को ‘शत्रु-विनाश प्रेरणा’ कहना गलत न होगा.

Chapter 04:

प्रस्तुत अध्याय में कर्म के बंदन से मुक्ति के लिए दो विकल्प सुजाये गए हैं – पहला, किसी भी कर्म के आधारभूत ढाँचे की समझ एवं उसे बिना स्वार्थ के करना और दूसरा, कर्म के महत्व का अनुभव करना. श्रद्धालु, तत्पर, संयतेन्द्रिय एवं संशयरहित व्यक्ति ही कर्म से संबंधी ज्ञान को प्राप्त कर सकता है. इस अध्याय को ‘यज्ञकर्म स्पष्टीकरण’ नाम दिया गया है.

Chapter 05:

किसी भी व्यक्ति को अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्तिथियों में प्रसन्न अथवा दुखी नहीं रहना चाहिए. इस प्रकार की विचारधारा हमें इस संसार से बाँधे रखेगी. यह परम-आनंद की प्राप्ति में रोड़ा है. निष्काम भावना से किये जाने वाले कर्म को ‘कर्मयोग’ कहा गया है. इस अध्याय को ‘यज्ञभोक्ता महापुरुष महेश्वर’ नाम दिया गया है.

Chapter 06:
मन को वश में करना बहुत ही कठिन है परन्तु असंभव नहीं. एक व्यक्ति ध्यान (Meditation) के माध्यम से शांति (मोक्ष) की प्राप्ति कर सकता है. लगातार ध्यान के अभ्यास से मन को काबू में किया जा सकता है. इसलिए इस अध्याय का शीर्षक ‘अभ्यास योग’ सही  है.

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Chapter 07:

ईश्वर ही सबकुछ है और इस सत्य को जानने के लिए उन्नत बौद्धिक अनुशासन की आवश्यकता है. अगर PK की माने तो हमें उस ईश्वर के लिए हमेशा कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए जिसने हमें और इस संसार को बनाया न की उस ईश्वर की जिसे हमने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए बनाया है. आज की पीढ़ी इस बात से पूर्णता सहमत है. उपर्युक्त अध्याय को ‘समग्रबोधः’ ( समग्र जानकारी) नाम दिया गया है.

Chapter 08:
एक व्यक्ति का विचार उसके जीवन के अंतिम क्षणों में उसके इस संसार से विदाई की बेला को काफी प्रभावित करता है. इसलिए लोगों को चाहिए की वो ईश्वर को याद कर अपने कर्म में लग जाये. इस अध्याय को ‘अक्षर ब्रह्मयोग’ नाम दिया गया है.

Chapter 09:

प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की अनुभूति के योग्य है फिर चाहे वह किसी भी जाति, मत व प्रान्त का क्यों न हो. पमात्मा से मिलन को योग कहा गया है. इस अध्याय का शीर्षक ‘राजविद्या जागृति’ है.

Chapter 10:
जब कभी हमें इस संसार में कोई विशेष, अविश्वनीय, खुबसूरत अथवा महत्वपूर्ण बातें गठित होती दिखे तो उसे ईश्वर की कृपा समझ कर स्वीकार करें और उसी के मुताबिक विचार करें. उपर्युक्त अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने इक्यासी विभूतियों का वर्णन किया है, इसलिए इस अध्याय को ‘विभूति वर्णन’ नाम दिया गया है.

Chapter 11:
इस अध्याय को ‘विश्वरूप-दर्शन योग’ नाम दिया गया है. इस संसार में ईश्वर की महत्ता को स्वीकार करने के पश्चात ही हम ईश्वर के उस विराट स्वरुप (विश्वरूप) के दर्शन कर उनमें  रूपांन्तरित हो सकते हैं.

Chapter 12:
प्रत्येक श्रद्धालु अथवा भक्त जिसने अपनी देह, बुद्धि, अंतर्ज्ञान ईश्वर को समर्पित कर दिया हो उसकी बातें ईश्वर को भी स्वीकारना पड़ता है. इस अध्याय में भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है, इसलिए अध्याय को ‘भक्ति योग’ भी कहा जा सकता है.

Chapter 13:
इस अध्याय को ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग’ नाम दिया गया है. इस संसार में ईश्वरीय महत्ता की अनुभूति सर्वोपरी है. जिसने ऐसा कर लिया हो वह अमरत्व को प्राप्त हो जाता है. वह संसार की मोहमाया से मुक्ति पा 
लेता है.

Chapter 14:
सात्विक (अच्छाई), राजसिक (मोह) और तामसिक (अज्ञानता) प्रकृति के तीन गुण हैं. पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित भक्ति द्वारा इन तीन गुणों से ऊपर उठकर हम संसार के बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं. इस अध्याय को ‘गुणत्रय विभाग योग’ नाम दिया गया है.

Chapter 15:
इस अध्याय को ‘पुरुषोत्तम योग’ नाम दिया गया है. ईश्वर इस संसार के एकमात्र सृष्टिकर्ता हैं. इस सच्चाई को विभिन्न महापुरुषों ने अलग-अलग दृष्टी से लोगों को समझाने का प्रयत्न किया है.

Chapter 16:
इस अध्याय को ‘दैवासुर संपद्विभाग योग’ नाम दिया गया है. मनुष्य के दो स्वभाव होते हैं - दैविक (अच्छा स्वभाव) और असुरी (बुरा स्वभाव). मनुष्य अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म करता है और कर्मो के अनुरूप जीवनचक्र के 84 लाख योनियों में जन्म लेकर दुःख भोगता है. इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति जरुरी है.

Chapter 17:
ईश्वर और ईश्वर की प्रभुता पर श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति को किसी भी शुभ कार्य को शुरू करने से पूर्व ईश्वर का स्मरण कर  लेना चाहिए. इस अध्याय को ‘ॐ तत्सत् श्रद्धात्रय विभाग योग’ नाम दिया गया है.

Chapter 18:
जब एक व्यक्ति पूर्ण रूप से एक सन्यासी की तरह इस संसार की मोहमाया से दूर ईश्वर की शरण में चला जाता है तब वह हर पाप से मुक्त हो जाता है. उपर्युक्त अध्याय को ‘संन्यास योग’ नाम दिया गया है.

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सोमवार, 16 मार्च 2015

गुप्त रखना गुरु मंत्र है A key to success




"रहिमन निज मन की व्यथा मन ही रखिये गोय,
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटी न लैहै कोय."
   कविवर  रहीम जी.

अर्थात्, हमें अपने मन की बातें मन में ही सजोकर रखनी चाहिए. इसे किसी अन्य से बाँटनी नहीं चाहिए क्योंकि आपकी बातें (दुःख, कमजोरी इत्यादि) सुनकर प्रसन्न होने वाले बहुत मिल जायेंगे परन्तु बाँटने वाला 
कोई भी नहीं मिलेगा.

रहीम जी अपने समय के न केवल एक महान कवि थे बल्कि एक श्रेष्ट पथ-प्रदर्शक, समाज-सुधारक भी थे. उन्होंने यह दोहा कहीं शताब्दी पहले कहा था परन्तु इसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही जान पड़ती है. ठीक यही बात आचार्य कौटिल्य पर भी लागू  होती है.

सबसे बड़ा गुरु-मंत्र है –
“अपने गुप्त रहस्यों को किसी के सामने प्रकट मत करो. यह तुम्हें नष्ट कर देगा”
चाणक्य (कौटिल्य).

अक्सर हम जाने-अनजाने अपने मन की बातें उनलोगों पर प्रकट कर देते हैं जो हमसे मीठी-मीठी, चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं. भविष्य में अगर आपका इन लोगों से कोई कलेश हो जाये तो फिर वही लोग आपकी बातें सार्वजनिक कर देते हैं. उस वक्त हमें अपनी भूल पर पछतावा होता है. कहीं बातें ऐसी होती है जिन्हें हम औरों से नहीं बाँट सकते. यदि ऐसा करते हैं तो हँसी का पात्र बनने की सम्भावना भी बढ जाती है.

"स्वंय अपनी कमजोरी को कभी भी उजागर न करें"
चाणक्य(कौटिल्य).

अलग-अलग मनुष्य की अपनी अलग कमजोरियाँ होती है और संभव है की आपके शत्रु आपकी कमजोरी का फ़ायदा उठाकर आपको, आपके परिवार और मान-प्रतिष्ठा को धुमिल करने की कोशिश करें. ऐसे लोग आपकी तकलीफों, कमजोरियों, असफलताओं पर मन-ही-मन हँसते हैं. इसलिए हमारे लिए आवश्यक है की ऐसे किसी भी कमजोरी को दूसरों पर प्रकट न करें. उसे एक राज के रूप में ही रहने दे.

"विषहीन सर्प को भी बीच-बीच में फुफकारना चाहिए"
चाणक्य (कौटिल्य).

जब तक आपका रहस्य बना रहेगा तब तक लोगों का आपमें आकर्षण भी बना रहेगा. एक व्यापारी जब तक लाभ कमाता रहता है तब तक बाजार में उसकी साख बनी रहती है. एक बार जब लोगों को व्यापारी के नुकसान का भान होता है तब कोई भी मदद के लिए हाथ आगे नहीं बढ़ाता है. सगे-संबंधी भी किनारा कर लेते हैं.

"आपका खुश रहना ही आपके दुश्मनों के लिए सबसे बड़ी सजा है"
चाणक्य (कौटिल्य).

उपर्युक्त बातें केवल एक व्यापारी के लिए नहीं अपितु सभी वर्गों के लोगों के लिए कही गयी है. इसलिए कोशिश करें की आप अपनी कमजोरियों के गुलाम न हो जाएँ. समय के साथ-साथ जो अपनी कमजोरियों को सुधार लेता है वह जीवन में सफल होता है. अपनी मजबूरियों का हल आप स्वंय ढूंढे. किसी और की राह न देखें.

प्रत्येक परिस्थिति में स्वंय पर भरोसा रखे और मन को शांत रखने की चेष्टा करें. चिंताओं को अपने पास फटकने न दे. हमेशा प्रसन्न रहिये क्योंकि आपकी खुशी ही आपके दुश्मनों के लिए सबसे बड़ी सजा है.

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