विचारणीय

गीता कहती है - संशयात्मा विनश्यति अर्थात् सदा संशय करनेवाला, दूसरों को संदेह की दृष्टि देखनेवाला, अविश्वासी एवं अनियंत्रित व्यक्ति क्षय को प्राप्त होता है।

गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

वारेन बफे की 11 मनोरंजक टिप्पड़ियाँ


वारेन बफे दुनिया के तीसरे सबसे धनवान व्यक्ति हैं. उन्होंने 11 वर्ष की आयु में पहली बार शेयर में निवेश किया. उन्होंने अबतक कुल 25 बिलियन डालर चैरिटी में दान दिया है. उन्होंने अपनी संपत्ति का 99% लोगों की भलाई के लिए इस्तेमाल करने का निर्णय लिया है. उनका जीवन अनेक उतार-चढाव से भरा पड़ा है.

दोस्तों इस आर्टिकल में हम आप लोगों से वारेन बफे द्वारा की गयी कुछ रोचक टिप्पड़ियाँ share करना चाहते हैं.

01. एकल आय पर कभी निर्भर न रहें. दूसरा स्रोत खोजने के लिए निवेश करें.

02. मैं हमेशा जनता था कि मैं अमीर होने जा रहा हूँ. मुझे कभी एक मिनट के लिए भी इस बात पर शक नहीं हुआ.

03. दोनों पैरों से एक साथ नदी की गहराई का परीक्षण कभी नहीं करें.

04. साख बनाने में बीस साल लगते हैं और उसे गंवाने में केवल पाँच मिनट. अगर आप इस बारे में सोचेंगे तो आप चीज अलग तरह से करेंगे.

05. ईमानदारी काफी महंगा तोहफा है, घटिया लोगों से इसकी उम्मीद न करें.

06. अगर कोई आज पेड़ की छांव में बैठा है तो इस वजह से कि किसी ने बहुत समय पहले ये पेड़ लगाया होगा.

07. एक टोकरी में अपने सभी अंडे मत रखो.

08. अपने से बेहतर लोगों के साथ समय बिताना अच्छा होता है. ऐसे सहयोगी बनाये जिनका व्यवहार आपसे अच्छा हो, और आप उस दिशा में बढ़ जायेंगे.

09. धनवान ‘समय’ पर निवेश करता है जबकि निर्धन ‘पैसे’ पर.

10. अगर आप अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख सकते हैं तो आप अपने पैसों पर भी नियंत्रण नहीं रख सकेंगे.

11. अपने कार्य के बारे में ज्ञान न होना जोखिम पैदा करता है.

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धन्यवाद् ... ... !!!

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

Gandhi vs Modern India in Hindi - Essay


मोहनदास करमचंद गाँधी जिन्हें संसार राष्ट्रपिता के नाम से जानती है, भारत के महापुरुषों में एक हैं. लोग प्यार से उन्हें बापू कहते हैं. आज के इस भागम-भरी जीवन सैली और तेज अर्थव्यवस्था में क्या कभी भी हमें गाँधीजी के आदर्शों और नीतियों के महत्व का बोध हुआ है ? कुछ हद तक हाँ और बहुत हद तक शायद नहीं. क्षणिक स्वार्थपूर्ति की खातिर लोग गाँधी को विदेशी एजेंट कहने से भी नहीं कतराते. परन्तु विचार करें तो पायेंगें की उनकी नीतियाँ पहले के मुकाबले आज अधिक प्रासंगिक हो गयी है.

इस बात को थोड़ा विस्तार से जानना जरुरी है. इसलिए आज हमने इस विषय को एक  रचना (Essay) के रूप में आपलोगों से साझा करना सही समझा.
अहिंसा एवं शांति नीति:
गाँधी जी ने अपने जीवन में अहिंसा को एक अचूक शस्त्र के रूप में धारण किया. उनके मुताबिक अहिंसा ही हिंसा का एक मात्र जवाब है. केवल अहिंसा के पथ पर चलकर ही हम स्वंय का और पूरे संसार का भला कर सकते हैं. शांति स्थापना में अहिंसा की अहम भूमिका होती है. आज जिस राष्ट्र में हिंसा का अधिक बोल-बाला है वह राष्ट्र सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक रूप से भी पिछड रहा हैं. भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसने अहिंसा के पथ पर चलकर आजादी प्राप्त की.
राष्ट्रीय एकता नीति:
गाँधीजी ने सांप्रदायिक एकता को अत्यधिक महत्व दिया है. राष्ट्रीय एकता की दृष्टी से देखा जाये तो सांप्रदायिक एकता का महत्व बढ़ गया है. उनके मुताबिक केवल भाई-चारे का नारा मात्र से एकता नहीं आती है. इसके लिए हमें एक दूसरे के विचारों, जाति, धर्मो का सम्मान एवं एक दूसरे पर विश्वास आवश्यक है.
सामाजिक नीति:
गाँधीजी ने अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दू और मुसलमान भाइयों के बीच एकता स्थापित करने और अछूत-प्रथा को दूर करने में लगाया. उन्होंने अछूतों को ‘हरिजन’ नाम प्रदान किया जिसका अर्थ है 'ईश्वर के लोग’. उन्होंने अछूत-प्रथा को मानवता का सबसे बड़ा अभिशाप घोषित किया.

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आर्थिक नीति:
गाँधीजी ने महसूस किया की भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से ग्रामीण भारत पर निर्भर है. आज भले ही आपको भारतीय आय (जी.डी.पी.) में  कृषि क्षेत्र की भूमिका कम लगे परन्तु परोक्ष रूप से आज भी किसानों को ही आप भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कह सकते हैं. अगर यही किसान अनपढ़ रह जाये और उनकी प्राथमिक आवश्यकता भी बड़ी मुस्किल से पूरी होती हो तो संभव है की अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. गाँधी जी इनके विकास की पुरजोर कोशिश के पक्षधर हैं. उनके मुताबिक कुटीर उद्योग इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. वर्तमान नीति-शास्त्रों को पुनः इस विषय पर विचार करना चाहिए की गाँधी जी की नीतियाँ किस हद तक भारत की अर्थव्यवस्था को सही दिशा दे सकती है.
औधोगिक नीति:
गाँधीजी औधोगिक क्रांति के घोर विरोधी नहीं हैं अपितु वे तो चाहते हैं की औधोगिकरण हो पर उस दायरे में जहाँ ग्रामीण बेरोजगारी और भुखमरी बढ़ने की बजाय घटे. वे उन्नत तकनीकी पद्धति के पक्षधर है, परन्तु भारत जैसे देश में जहाँ श्रमिकों की संख्या अधिक है वहाँ वे श्रमिक-प्रधान अर्थव्यवस्था की जरुरत अधिक मानते हैं. उन्होंने समाज के जरुरी संसाधनों के समान वितरण पर जोर दिया है ताकि ग्रामीण, पिछड़े वर्गों के लोगों को भी तरक्की का मौका मिल सके.
रोजगार नीति:
गाँधीजी का मानना है की ग्रामीण भारत में रोजगार के अवसर पैदा कर बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है. उन्होंने इस विषय में कुटीर उद्योगों की भूमिका की सराहना की है और इसे देश से बेरोजगारी भागने का एक नायाब तरीका बताया है.
राजनैतिक नीति:
राष्ट्र के विकास के लिए राजनैतिक स्थिरता अनिवार्य है. गाँधी जी ने न केवल भारत बल्कि विश्व के अन्य देशों के लोगों में भी राजनैतिक जागृति पैदा कर उन्हें आज़ादी प्राप्त करने का मार्ग दिखाया. उनकी अहिंसा नीति ने विरोधियों को भी दोस्त बना दिया. उन्होंने गाँव में ‘पंचायती राज’ की वकालत की. आज भारत के प्रत्येक गाँव में ‘पंचायत’ कार्यरत है. पंचायत चूँकि स्थानीय लोगों द्वारा गठित होता है इसलिए स्थानीय लोगों की समस्याओं को पंचायत आसानी से समझ कर उनकी आवश्यकताओं के मुताबिक निर्णय ले सकता है.
शिक्षा नीति:
गाँधीजी के अनुसार शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जो लोगों में आत्मविश्वास और जागरूकता पैदा कर सकती है. उन्होंने किताबी शिक्षा की बजाय तकनीकी शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया है. उनके मुताबिक शिक्षा वही है जो लोगों में आत्मा-निर्भरता ला सके. उनके अनुसार शिक्षा न केवल ज्ञान में वृद्धि लाती है बल्कि दिलों की संस्कृति को समृद्धि प्रदान करती है. उन्होंने खेल को शिक्षा का अहम अंग बताया. गाँधीजी की मान्यता है, “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है.”

वर्तमान में दिन-ब-दिन मानव मूल्यों का क्षरण होता जा रहा है. आज की राजनीति में नैतिकता का लगभग पतन सा हो गया है. गाँधी जी ने अपने समय में देश को राजनैतिक नेतृत्वता के साथ-साथ नैतिक नेतृत्वता भी प्रदान की जो आज की भारतीय राजनीति में नदारत है. इक्कीसवीं सदी के भारत को गाँधी जी के विचारों से दूर रखना हानिकारक होगा. समय की विड़म्बना कहिये या फिर समय की माँग, जिस विन्स्टन चर्चिल को गाँधी फूटी आँख नहीं सुहाते थे, उसी गाँधी जी की मूर्ति का पिछले दिनों लन्दन में ठीक विन्स्टन चर्चिल की मूर्ति के आगे अनावरण किया गया. ये इस बात का सबूत है कि गाँधीवादी नीतियाँ आज पूरे संसार की जरुरत बनती जा रही है.

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रविवार, 19 अप्रैल 2015

सबक

साधारणतया सबक का अर्थ शिक्षा अथवा सीख है. बचपन में जब बच्चे चलना सीखते हैं तब कहीं बार गिरते भी हैं परन्तु चलना नहीं छोड़ते और निरंतर अपनी गलतियों से सबक लेते हुए एक दिन अपने दोनों पैरों पर दौड़ने लगते हैं. ठीक उसी प्रकार हमें भी अपनी गलतियों पर निराश होने की बजाय उन गलतियों से सबक लेकर जीवन में आगे बढ़ना चाहिए.

सबक सीखने का अर्थ अपनी गलतियों को दोहराने से नहीं है. इसका अर्थ है कीये हुये गलतियों को जान ने के पश्चात् उसे दोबारा न दोहराना.

स्कूलों में मिली सीख भले ही हमें अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने में सहायक सिद्ध हो परन्तु जिंदगी की पाठशाला से सबक सीखे बगैर जीवन में सफलता नहीं मिलेगी. हमारा घर-परिवार, समाज, दुनिया इत्यादी पाठशाला ही है जहाँ नित नया विषय हमें सीखने को मिलता है.

हमारा शत्रु अथवा प्रतिद्वंदी ही हमें जीवन की पाठशाला में समय-समय पर सबक सिखाता रहता  है. हमारा शत्रु ही हमारी सोयी हुई शक्तियों को जागृत कर हमें मेहनती बनाता है. इसलिए समय-समय पर कई महापुरुषों ने ‘अपने शत्रु से प्रेम करो’ का नारा दिया.

तुलसीदास जी ने अपनी पत्नी के कड़वे परन्तु जीवन की सच्चाई से रूबरू कराते सत्य वचनों से सीख लेकर रामायण जैसे महाकाव्य की रचना कर डाली. सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध से सबक लेकर शांति और अहिंसा का पथ अपनाया और इतिहास में अमर हो गए.

जिस तरह सोने को तपाने से वह शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार समस्याओं का सामना करने से उसका हल प्राप्त होता है. जीवन में ठोकर मिलने पर हमारी संकल्प-शक्ति को बल मिलता है और तब जाकर हम अपनी कर्मठता का डोर थामते हैं.
मनुष्य स्वभाव से सुस्त होता है. परन्तु जीवन का सबक हमारी सुस्ती को चुस्ती में बदल देता है. ये सबक हमें  जीना सिखाता है. इतिहास इस बात का साक्षी है.

थॉमस अलवा एडिसन ने बल्ब का अविष्कार किया था. परन्तु क्या आपको पाता है उन्होंने लगभग 100 बार से अधिक कोशिश की परन्तु प्रत्येक बार असफल होने के बावजूद निराश न होकर उससे सबक लेकर अपना प्रयत्न जारी रखा और अंततः हमारे घरों को रोशन कर दिया.

जीवन के अंत के पश्चात् लोग आपको इस बात के लिए याद नहीं करते कि आपने कितनी गलतियाँ की है बल्कि इसलिए कि आपने अपनी गलतियों से क्या सीखा और दुनिया को क्या सिखाया.

इस संसार में ऐसा कोई नहीं जो हमारी सहायता कर सकता है. अपनी गलतियों से सबक सीख कर हमें अपनी सहायता स्वंय करनी होगी.


ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसे समस्याओं ने घेर न रखा हो. जीवन समस्याओं के जाल से बुना होता है. समस्याओं का हल तलासने की जगह अगर हम चिंता में डूब जाये तो इससे केवल हमारी शक्तियों का हनन होगा. चिंता हमें बिना आग के अन्दर-ही-अन्दर जलाती रहती है. इसलिए चिंता को छोड़ अपनी गलतियों से सबक लेकर अपनी शक्तियों को जागृत कर कदम आगे बढ़ाये, सफलता जरुर मिलेगी.


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बुधवार, 15 अप्रैल 2015

प्रसन्नता Happiness

मानव जन्म को श्रेष्ट कहा गया है, तो क्या इस जीवन को व्यर्थ के दुखों से घेर लेना न्यायसंगत होगा, नहीं न ? जी हाँ, आज का दर्शन शास्त्र भी इसी ओर इशारा करता है कि प्रसन्नता को अपनाकर ही जीवन को सुखी बनाया जा सकता है. हमें उन सारे कारकों का त्याग कर देना चाहिए जो हमारे प्रसन्नता के मार्ग में बाधक हैं.

प्राचीन कल में लोग भूत और भविष्य के भंवर में फसें रहते थे. परन्तु आज का युग ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जो कल की चिंता न कर आज की सोचते है, आज में जीते हैं और आज को समर्पित हैं. जो व्यक्ति बीते हुए कल अथवा आने वाले कल की चिंता करता है वह अपने वर्तमान के साथ न्याय नहीं कर सकता. उसका वर्तमान भी प्रसन्नता से वंचित हो जाता है.

एक शोध से सामने आया है की संसार के अधिकतर लोग जाने-अनजाने गलत राह अथवा गलत निर्णय को अपनाकर प्रसन्नता प्राप्त करना चाहते है. ये गलत धारणा है जो आज की भागती जीवन सैली की सोच बनता जा रहा है. उनका विचार है की वो पैसों से सबकुछ खरीद सकते है, प्रसन्नता को भी. वे स्वार्थपूर्ति को ही प्रसन्नता प्राप्ति का मार्ग समझने की भूल कर बैठता है. वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं की औरों की खुशी के लिए किया गया कार्य मन को कितना प्रसन्न रखता है, फिर चाहे कार्य छोटा हो अथवा बड़ा. वे भूल जाते हैं की पैसा जीने का एक साधन है नाकि जीवन. जीवन वही श्रेष्ट है जो प्रसन्नता से परिपूर्ण हो.

एक पहाड़ी पर खड़े होकर अगर आप तेज ध्वनि से कुछ कहते हैं तो वही स्वर कुछ पलों के पश्चात वापस हमारे कानों में दुबारा सुनाई पड़ता है ठीक उसी प्रकार जीवन में उदास रहने पर दुःख और प्रसन्न रहने पर खुशी प्राप्त होता है. प्रसन्नता किसी की जागीर नहीं है और न ही कोई इसे संचित कर सकता है. इसे आप जितना औरों पर लुटाएँगे उतना ही ये अधिक होकर आपके पास वापस लौटेगा. अमेरिका के महान राष्ट्रपति, अब्राहम लिंकन का मानना था, “साधारण रूप से लोग उतनी ही प्रसन्नता हासिल करता है, जितना वह कृत संकल्प होता है.”

अगर हम शांत चित से विचार करें तो पाएंगे की जीवन में दुःख, कष्ट, निराशा, संघर्ष इत्यादी मनुष्य को और अधिक मजबूत एवं संयमी बनाता है. गाँधीजी ने देश की आजादी की खातिर कितने ही कष्ट झेले परन्तु चेहरे पर से प्रसन्नता को गायब न होने दिया. महाराणा प्रताप ने राष्ट्र की मर्यादा की लाज रखते हुए जंगल-जंगल भटकते रहे, घास की रोटियां खायी परन्तु दुःख एवं निराशा को पास भटकने न दिया. मानसिक और शारीरिक रूप से प्रसन्न व्यक्ति के लिए उसका परिवार, मित्र, समाज, देश और संसार सभी स्वर्ग समान सुख देता है. वहीँ दुखी व्यक्ति के लिए उसका हितैषी भी दुश्मन जान पड़ता है.

उचित दिशा में विचार कर कार्य करने अथवा दूसरों की सेवा करने से प्रसन्नता प्राप्त होती है. उच्च-विचार, ईमानदारी एवं परिश्रम से किया गया कार्य प्रसन्नता प्राप्ति का साधन है. प्रसन्नता को ‘आत्मा का आहार’ भी कहा गया है. इसलिए, अधिक से अधिक प्रसन्न रहने की कशिश करें. एक प्रसन्न चित वाला व्यक्ति अपने आस-पास के माहौल को भी खुशनुमा बना देता है. उनके चेहरे से प्रकाश की आभा फूटती सी महसूस होती है. जो कोई ऐसे व्यक्ति की संपर्क में आता है वह भी थोड़े पलों के लिए ही सही अपने ग़मों को भूल जाता है. ऐसा व्यक्ति किसी भी कार्य को पूर्ण करने की योग्यता रखता है. वह लोगों के आकर्षण का केंद्र बन जाता है.

दिनचर्या के छोटे-छोटे से कार्यों से आपको प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है. जरुरत है तो बस उसे खोजकर अपनाने की. कहीं बार हम बड़ी सी खुशी के लिए छोटी-छोटी कहीं खुशियों को नजरअंदाज कर देते हैं और बाद में उम्र गुजर जाने पर उन बातों को सोचकर फिर से दुखी हो जाते हैं. प्रसन्नता से मत भागिए वरना वह हमसे दूर चली जाएगी.

आधुनिक चिकित्सा पद्धति में हँसी को इलाज का एक हिस्सा माना गया है. स्वेट मार्डेन ने प्रसन्नता तो सुखमय जीवन का आधार कहा है. 
एक बार एक व्यक्ति महात्मा बुद्ध से कहता है, “मुझे खुशियाँ चाहिए”. जवाब में बुद्ध कहते है कि पहले “मुझे” को दूर करें क्योंकि यह अहं है, उसके पश्चात् “चाहिए” को दूर करें क्योंकि यह इच्छा है, अंत में “खुशियाँ” शेष रह जाएगी.


गौतम बुद्ध ने प्रसन्नता को जीवन में महत्व दिया है. उनके अनुसार प्रसन्नता को प्राप्त करने का कोई मार्ग नहीं है; प्रसन्नता स्वंय एक मार्ग है.



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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

सुनी-सुनाई बातें

दोस्तों अक्सर देखने में आता है कि हम किसी की बातें सुनकर बिना सोचे-विचारे तुरंत निर्णय ले बैठते है और बाद में पछताते हैं. सुनी-सुनाई बातों पर कभी भी विश्वास नहीं करनी चाहिए.

किसी की बातें सुनने के बाद अगर आपको निर्णय लेना हो तो पहले उस बात की तह तक जाइये और सभी कोणों पर दृष्टी डालने के पश्चात निर्णय लीजिये. अक्सर लोग निजी स्वार्थ के अनुकूल बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने में परहेज नहीं करते.


अपने इसी विचार को जीवंत करने के लिए आप लोगों से एक कहानी Share करना चाहूँगा.


बहुत समय पहली की बात है. बालानगर राज्य में एक राजा राज करता था. उनका नाम बालादेव था.

वह कभी भी राज्य की परिक्रमा को नहीं निकलता था. रोज सवेरे राजा को दाड़ी बनाने का बड़ा शौक था. रोज की तरह आज भी नाई जिसका नाम शामू था, अपने सामान सहित राजा की दाड़ी बनाना शुरू करता है.


बालादेव (शामू से) – शामू.


शामू (हाथ जोड़कर) – जी, महाराज.


बालादेव – आज राज्य का हाल कैसा है ?


शामू – महाराज, राज्य में सब ठीक-ठाक है. कहीं कोई चोरी-डकैती नहीं, झगड़ा नहीं. सभी सुख पूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं. कहीं कोई गरीबी नहीं है. आपके राज्य में हर ओर खुशहाली ही खुशहाली है.


राजा खुश होकर शामू को सोने की मुद्राएँ भेंट कर विदा करता है. इस तरह रोज शामू को कुछ न कुछ भेंट राजा से मिल जाता था.


अगले दिन दाड़ी बनाते वक्त राजा बालादेव जब शामू से राज्य का हाल पूछा तब शामू ने दुखी मन से कहा - महाराज, राज्य में सब ठीक नहीं है. हर ओर चोरी-डकैती, झगड़े हो रहे हैं. सभी दुखी हैं. हर ओर गरीबी है. आपके राज्य में जनता दुखी है.

राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि आखिर एक दिन में ऐसा क्या हो गया. बालादेव ने अपने मंत्री से सच्चाई पता करने को कहा. मंत्री सारी जानकारियाँ इकट्टा कर राजा के समीप प्रस्तुत होता है.


मंत्री (राजा से) – महाराज की जय हो.


बालादेव – बोलो, क्या खबर लाये हो.


मंत्री – महाराज, शामू ने आपसे जो कुछ भी कहा वह राज्य के विषय में न होकर उसके अपने घर के विषय में कहा था. आपके दिए हुए उपहारों से उसका घर दिन-ब-दिन खुशहाल होता जा रहा था, गरीबी का कहीं नामों निशान नहीं था. इसलिए वह हर रोज प्रसन्न रहता था. परन्तु कल रात शामू के घर कुछ चोर आये और सारे पैसे चुरा ले गए. इसलिए आज शामू दुखी है.




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शनिवार, 4 अप्रैल 2015

अपना दीपक स्वंय बनो




दोस्तों, क्या आप बता सकते हो की दुनिया में ऐसा कौन है जो आपको सबसे अधिक चाहता है ? आपके मन में अलग-अलग तस्वीर उभरना स्वाभाविक है. हमारा मानना है की हम स्वयं अपने आप को सबसे अधिक चाहते हैं.

जब हम स्वयं को चाहेंगे तभी तो अपनी मंगल कामना की खातिर आवश्यक कदम उठाने से भी कतरायेंगे नहीं. स्वयं से प्रेम का अर्थ स्वार्थपूर्ति कतई नहीं है. जो व्यक्ति खुद से प्रेम करता है वह अपनी शक्तियों और कमजोरियों से भी परिचित होता है और उसके मुताबिक निर्णय लेकर कार्य में सफलता प्राप्त करता है.

कहा जाता है जो दुश्मन की चाल को भांप ले वह बुद्धिमान होता है. परन्तु ऐसी बुद्धिमानी किस काम की जहाँ हम स्वयं से अनभिज्ञ रहें. स्वयं की वास्तविकताओं का भान होना ही सबसे उत्तम ज्ञान है जो साधक को मंजिल तक पहुँचने में सहायक सिद्ध होता है.

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||
-     गीता

अर्थात, हमें स्वयं अपना और अपनी आत्मा का उद्धार करना चाहिए. अपनी हिम्मत कभी न हारे क्योंकि हमारी आत्मा ही हमारा मित्र है और वही हमारा शत्रु भी. इसके अलावा न कोई हमारा मित्र है और ना ही कोई शत्रु.

हम इस संसार में अकेले आये थे और अकेले ही जाना है. इसलिए किसी और की राह न ताकों. अपना भला बुरा हम स्वयं जानते हैं, इसलिए अपने कर्म के जिम्मेदार भी हम स्वयं होंगे. दूसरों को दोष देना उचित न होगा.

अपनी राह स्वयं चुनों. किसी के भी कही हुई बातों या विषयों को अपने ज्ञान से परखो और जब आपका मन जवाब से संतुष्ट हो जाये तो अपना कदम आगे बढ़ाओ. हम स्वयं अपने अच्छे और बुरे कर्मों के लिए उत्तरदायी हैं. हम स्वयं अपने दोस्त और उत्तम गुरु हैं.

जीवन की राह में समय-समय पर आपको महसूस होगा की आप अकेले हैं. परन्तु निराश होने की आवश्यकता नहीं है. अकेले है तो स्वयं पर भरोसा रखो. अपने कार्य को स्वयं करो, औरों का मुहँ न ताको. अपने ज्ञान रूपी आँखों से सही और गलत में अंतर जानो.


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