विचारणीय

गीता कहती है - संशयात्मा विनश्यति अर्थात् सदा संशय करनेवाला, दूसरों को संदेह की दृष्टि देखनेवाला, अविश्वासी एवं अनियंत्रित व्यक्ति क्षय को प्राप्त होता है।

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

क्षमादान परमधर्म

अगर आपको भारतवर्ष की संस्कृति और विचारों को जानना है तो आपको पुराणों को जानना होगा। पुराण भारत की आत्मा है। यह एक सागर सामान है जिसमेँ निहित ज्ञान का भंडार सदियों से हमें जीने की राह दिखलाती आ रही है।

आज मैं आपसे लिंगपुराण में निहित एक छोटी परंतु प्रेरणादायक प्रसंग का वर्णन करने जा रहा हूँ जो आज के परिवेश और माहौल की दृष्टि से सारे संसार के लिए सबक का विषय है।

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महाराज त्रयंक अपने राज्य और प्रजा की खुशहाली के लिए विशाल यज्ञ करने का निर्णय लिया जिसमें देश के कोने-कोने से सभी विद्वानों और ऋषियों को आमंत्रण भेजा गया। आमंत्रण के दौरान किसी विषय को लेकर महर्षि वसिष्ट के पुत्र शक्ति और महर्षि विश्वामित्र में विवाद उत्पन्न हो जाता है। क्रोध में आकर विश्वामित्र शक्ति को शाप दे देते हैं जिसके कारण उसी क्षण शक्ति समेत उसके अन्य निन्यानबे भाइयों की मृत्यु हो जाती है।

हिंदुओं के लिए वंश का नाश काफी मायने रखता है क्योंकि हिन्दू दर्शन के मुताबिक वंश के नाश से पितरों का भला नहीं होता और उनकी आत्माओं को मोक्ष प्राप्त नहीं होता है।

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महर्षि वसिष्ट का तो जैसे सब कुछ देखते ही देखते समाप्त हो गया। चारों तरफ शव ही शव जैसे कोई युद्ध का मैदान हो जिसपर गिरकर महर्षि वसिष्ट की धर्मपत्नी एवं पुत्रवधु जोर-जोर से विलाप कर रहे थे। कुछ पलों के लिए महर्षि वसिष्ट ने भी अपनी धर्मपत्नी संग देह त्यागने पर विचार करने लगे। परिस्थितियों की गंभीरता को देखकर महर्षि वसिष्ट की पुत्रवधु अपने सास-ससुर को ढाँढस बँधाते हुए कहती है कि उन्हें निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि उनके वंश का बीज यानि उनका पौत्र अभी उसके गर्भ में सुरक्षित पल रहा है।

परंतु इन सब शांतनाओं के बावजूद महर्षि वसिष्ट जब कभी अपनी धर्मपत्नी और पुत्रवधु के चेहरे पर दुःख की लकीरों को देखते हैं तो अनायास उनका भी मन उद्विग्न हो जाता है।

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इतना कुछ हो जाने के पश्चात भी महर्षि वसिष्ट को विश्वामित्र पर क्रोध नहीं आया। महर्षि वसिष्ट धैर्य एवं क्षमा की मूर्ति थे। उनका मानना था कि प्रत्येक जीव को इसी संसार में उसके कर्मों के अनुसार फल भोगना ही पड़ता है। कोई किसी को मार नहीं सकता। जीव केवल अपने कर्मों के मुताबिक दंड स्वरुप मृत्यु को प्राप्त होता है। अतः औरों पर क्रोध करना निरर्थक है।

दोस्तों, ऐसी विषम परिस्थितियों में भी अपने विरोधियों के प्रति सहानुभूति एवं क्षमा का भाव रखना महानता का प्रतीक है।

क्षमादान शांति की राह में पहला कदम है।

हम भारतवासी धन्य है जो हमारी सांस्कृतिक विरासत और इतिहास ऐसे महापुरुषों की जीवनियों से भरी पड़ी है जो समय आने पर हमारा मार्गदर्शन करते हैं।

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