दोस्तों, क्या आप बता सकते हो की दुनिया में ऐसा कौन
है जो आपको सबसे अधिक चाहता है ? आपके मन में अलग-अलग तस्वीर उभरना स्वाभाविक है. हमारा
मानना है की हम स्वयं अपने आप को सबसे अधिक चाहते हैं.
जब हम स्वयं को चाहेंगे तभी तो अपनी मंगल कामना की
खातिर आवश्यक कदम उठाने से भी कतरायेंगे नहीं. स्वयं से प्रेम का अर्थ
स्वार्थपूर्ति कतई नहीं है. जो व्यक्ति खुद से प्रेम करता है वह अपनी शक्तियों और
कमजोरियों से भी परिचित होता है और उसके मुताबिक निर्णय लेकर कार्य में सफलता
प्राप्त करता है.
कहा जाता है जो दुश्मन की चाल को भांप ले वह
बुद्धिमान होता है. परन्तु ऐसी बुद्धिमानी किस काम की जहाँ हम स्वयं से अनभिज्ञ
रहें. स्वयं की वास्तविकताओं का भान होना ही सबसे उत्तम ज्ञान है जो साधक को मंजिल
तक पहुँचने में सहायक सिद्ध होता है.
उद्धरेदात्मनात्मानं
नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो
बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||
-
गीता
अर्थात, हमें स्वयं अपना और अपनी आत्मा का उद्धार
करना चाहिए. अपनी हिम्मत कभी न हारे क्योंकि हमारी आत्मा ही हमारा मित्र है और वही
हमारा शत्रु भी. इसके अलावा न कोई हमारा मित्र है और ना ही कोई शत्रु.
हम इस संसार में अकेले आये थे और अकेले ही जाना है. इसलिए
किसी और की राह न ताकों. अपना भला बुरा हम स्वयं जानते हैं, इसलिए अपने कर्म के
जिम्मेदार भी हम स्वयं होंगे. दूसरों को दोष देना उचित न होगा.
अपनी राह स्वयं चुनों. किसी के भी कही हुई बातों या
विषयों को अपने ज्ञान से परखो और जब आपका मन जवाब से संतुष्ट हो जाये तो अपना कदम
आगे बढ़ाओ. हम स्वयं अपने अच्छे और बुरे कर्मों के लिए उत्तरदायी हैं. हम स्वयं
अपने दोस्त और उत्तम गुरु हैं.
जीवन की राह में समय-समय पर आपको महसूस होगा की आप
अकेले हैं. परन्तु निराश होने की आवश्यकता नहीं है. अकेले है तो स्वयं पर भरोसा
रखो. अपने कार्य को स्वयं करो, औरों का मुहँ न ताको. अपने ज्ञान रूपी आँखों से सही
और गलत में अंतर जानो.
महात्मा बुद्ध ने कहा था – “अपना दीपक स्वंय बनो”.
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