एक गाँव में एक व्यापारी रहता था. उसका नाम दिनेश अग्रवाल
था. वह काफी मेहनती था. उसका एक बेटा था जिसका नाम सुरेश अग्रवाल था जो अपनी माँ
के लाड़-प्यार की वजह से काफी आलसी हो चुका था. काम करने से जी चुराता था. व्यापारी
ने कहीं सारे प्रयत्न किए अपने बेटे को सुधारने हेतु परन्तु सब व्यर्थ गया.
व्यापारी को दुःख था कि कहीं उसका सारा व्यापार उसके बेटे की आलस की भेंट न चढ़
जाये.
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एक दिन गाँव के किनारे नदी के तट पर एक पेड़ के नीचे साधू
को ध्यान में मग्न देख दिनेश उसके पास जाकर उन्हें प्रणाम किया. साधू ने व्यापारी
से उसका परिचय और उसके आने का कारण पूछा.
व्यापारी ने बुझे मन से अपने बेटे की आलसी लत से
दुःखी होने की बात कह दी.
साधू ने व्यापारी को उसके बेटे सहित अगले दिन आने को
कहा. अगले दिन व्यापारी अपने बेटे सहित साधू के पास हाजिर हो गया.
साधू (सुरेश से) – बेटा, यह बताओ कि तुम्हें सबसे
अच्छा क्या लगता है.
सुरेश – मुझे बिना काम किये आराम से घर पर रहना बहुत
अच्छा लगता है.
साधू – बेटा जब तक तुम्हारे पिता जीवित हैं तब तक
तुम उनके कमाए धन पर मौज कर सकते हो परन्तु उसके पश्चात् तुम्हारा क्या होगा.
सुरेश (थोड़ा परेशान होकर) – क्या इसका कोई उपाय है ?
साधू – इसका केवल एक उपाय है. अगर तुम अगले कुछ
दिनों तक अपनी कमाई में से एक रुपये मुझे प्रतिदिन शाम के वक्त लाकर दोगे तो फिर
तुम्हें जीवन में आगे कभी काम करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.
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सुरेश – केवल एक रूपया ?
साधू – हाँ.
सुरेश राजी हो गया. परन्तु आलस का मारा काम क्यों
करता भला. सुरेश ने अपनी माँ को सारी बात बता दी. उसकी माँ नहीं चाहती थी की एक
रूपया के लिए सुरेश को पसीना बहाना पड़े. इसलिए शाम के वक्त सुरेश को एक रूपया देकर
उसे साधू महाराज को दे आने को कहती.
सुरेश (साधू से) – ये लीजिये महाराज आपका एक रूपया.
साधू – जाओ इसे नदी में फेंक आओ.
सुरेश ने वैसा ही किया और साधू से आज्ञा ले घर की ओर
चल पड़ा. अगले कुछ दिनों तक यही प्रक्रिया चलती रही जिसमें सुरेश रोज शाम एक रूपया
नदी में फेंक आता था.
परन्तु एक दिन सुरेश की माँ को किसी कारणवश अकस्मात्
अपने मायके जाना पड़ा. जल्दी में सुरेश को एक रूपया देना भूल गयी. सुरेश को जब पता चला
की उसकी माँ नहीं है तो परेशान हो गया कि आखिर उसे पैसे कौन देंगा.
कहीं कोई उपाय न सूझता देख सुरेश बाजार की ओर चल
पड़ा. आखिर वहाँ भी वो क्या करता. उसे कोई भी काम नहीं आता था. तभी उसने देखा की
पास में एक व्यापारी कूली के लिए इंतजार कर रहा था जो उसके सारे सामान ढो सके.
सुरेश ने व्यापारी से बोझा उठाने की बात कही, परन्तु
व्यापारी इसके लिए केवल पचास पैसे देने को राजी हुआ. सुरेश ने व्यापारी से कहा की
उसे एक रूपया दे और इसके लिए सुरेश अतिरिक्त बोझा उठाने को भी राजी हो गया. आखिर
जैसे-तैसे सुरेश ने व्यापारी का सामान उसके गंतव्य तक पहुँचा दिया जिसके लिए
व्यापारी ने उसे एक रूपया दिया. इस बार एक रूपया को देखकर सुरेश की आँखों में एक
गजब की चमक आ गयी.
शाम के वक्त
हमेशा की तरह वह साधू महाराज के पास गया. साधू महाराज को इस बार सुरेश थोड़ा
थका-हारा सा जान पड़ा. उन्होंने पहले की भांति सुरेश को पैसे नदी में फेंक आने को
कहा.
सुरेश ने
पैसे नदी में फेंकने से मना कर दिया. साधू ने कारण पूछा.
सुरेश –
महाराज, मुझे अपनी भूल समझ आ गयी है. अब तक के व्यवहार के लिए मुझे पश्चात् हो रहा
है. सच ही है कि मेहनत की कमाई का स्वाद
ही अलग होता है और इसका महत्व मैंने आज जान लिया है.
दोस्तों,
केवल वही व्यक्ति अपने स्वाभिमान को बनाये रख सकते हैं जो अपनी मेहनत के बल पर
अपनी राह चुनते हैं.
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