विचारणीय

गीता कहती है - संशयात्मा विनश्यति अर्थात् सदा संशय करनेवाला, दूसरों को संदेह की दृष्टि देखनेवाला, अविश्वासी एवं अनियंत्रित व्यक्ति क्षय को प्राप्त होता है।

शनिवार, 30 जुलाई 2016

भीष्म उपदेश Bhishma Updesh


राजकुमार देवव्रत ने अपने पिता महाराज शांतनु की खुशी की खातिर आजीवन ब्रह्मचर्य रहने की भीषण प्रतिज्ञा लेने के कारण ही भीष्म नाम से प्रसिद्ध हुए. उनका सम्पूर्ण जीवन हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है और आगे भी रहेगा. उन्होंने हमेशा राष्ट्र हित को सबसे ऊपर माना है. अदम्य साहसी, धैर्यवान, जितेन्द्रिय, क्षमाशील, स्नेहमूर्ति, विनम्र, वेदज्ञानी, सत्यनिष्ठ, राष्ट्रप्रेमी, पितृभक्त इत्यादि कहीं उपाधि से हम उन्हें नवाजे तो भी उनके चरित्र की विशेषताओं का ब्योरा पूरा नहीं हो पायेगा.

कुरुक्षेत्र में बाणों की शय्या पर भीष्म लेटे हुए थे. श्रीकृष्ण के कहने पर युधिष्टिर अपने पितामह भीष्म के नजदीक जाकर उनसे अपनी जिज्ञासा शांत करने हेतु कुछ सवालों का जवाब माँगते हैं. जिसके जवाब में भीष्म द्वारा कही गयी कुछ महत्वपूर्ण बातों का एक निम्न संग्रह आप लोगों से साझा कर रहा हूँ.

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भीष्म का उत्तम उपदेश:
1) इन्द्रियों को वश में कर सकने वाले संयमी पुरुष चाहे कोई काम करें, उनका प्रयत्न हमेशा सफल होता है. इन्द्रियों को जीत लेने वाला पुरुष परम सुख से सोता है उसके सब काम अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं.

2) आचार ही से मनुष्यों की आयु बढ़ती है. दुराचारी मनुष्य इस लोक में दीर्घायु नहीं होते.

3) सब जीवधारियों का भला चाहने वाले को कभी किसी प्रकार का दुःख नहीं होता.

4) जो किसी से नहीं डरता और न जिससे कोई प्राणी डरता है, वही जितेन्द्रिय पुरुष सब प्राणियों से आदर पाता है.

5) अनसूया, क्षमाशीलता, शांति, संतोष, प्रियवचन, सत्य और दान दुरात्माओं के अधिकार की वस्तु नहीं है.

6) ब्रह्मचारियों को उचित है कि वे काम और क्रोध को अपने वश में करें.

7) धैर्य को धारण करने वाला कदापि किसी भी दशा में दुःखी नहीं होता.

8) शरीर के आरोग्य रहने से मनुष्य सब कुछ कर सकता है.

9) यदि कोई अपनी निंदा करता है तो चुप हो जाय.

10) अहिंसा में सब धर्म आ जाते हैं. जो लोग हिंसा नहीं करते, वे सदा अमृत उपभोग किया करते हैं.

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11) सब जीवों को अभयदान देना ही सब दानों में उत्तम है.

12) सत्य बोलना ही उत्तम है. सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है. सत्य के सहारे ही धर्म टिका है. समस्त जगत् सत्य ही से प्रतिष्ठित है. सत्य ही को ऋषि परमधर्म कहते हैं, इसलिए सदा सत्य बोलो.

13) परधन हरना उचित नहीं है.

14) गाँव में आई हुई हिरनी की तरह चोर सबसे शंकित रहता है. जैसा वह स्वंय है, वैसा ही वह सब को चोर समझता है.

15) जिन्हें स्वंय जीने की इच्छा हो वह कैसे औरों का वध कर सकता है. अतः जैसी अपने लिए अभिलाषा करें, मनुष्य को उचित है, वैसी ही दूसरों के लिए भी करें.

16) दीन-दरिद्रों के पालने-पोसने के लिए ही धन की वृद्धि करनी चाहिए अन्यता केवल धन की वृद्धि करना अत्यंत निकृष्ट काम है.

17) जो अपने को अप्रिय है, उसे दूसरों के लिए भी अप्रिय समझे और कभी वैसा बर्ताव दूसरों के साथ न करें. यही धर्म का लक्षण है.

18) पाप करनेवाले को एक-न-एक विपत्ति सदा घेरे रहती है, किन्तु जो पुण्य कर्म किया करते हैं वे सदा सुखी और प्रसन्न रहते हैं.

19) जिसके चरित्र की परीक्षा न ली हो, उसे विद्या न दे. जैसे अग्नि में तपाकर, काटकर और घिसकर स्वर्ण की जाँच की जाती है, वैसे ही कुल, शील और गुणों को देख कर शिष्य की परीक्षा ले.

20) जीव अपने जीवन काल में जो कुछ पुण्य संचित करता है, उसका सारा फल उस समय नष्ट हो जाता है जब वह किसी वस्तु को देने की प्रतिज्ञा करने के पश्चात् भी नहीं देता.

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21) माता-पिता की सेवा करने वाले को पुण्य प्राप्त होता है और उन्हें स्वर्गलोक में पुण्य पद मिलता है.

22) गोदान से बढ़कर कोई दान नहीं है क्योंकि न्याय से प्राप्त गऊ का दान करने से दाता तुरंत अपने कुल का उद्धार करता है.

23) यदि बुद्धिमान पुरुष राजा के साथ रहे तो शत्रु भी प्रसन्न होकर मित्र बन जाते हैं.

24) राजा, राजसभा में पाँच ऐसे पुरुषों को अर्थसचिव (वितमंत्री) बनावें जो धैर्यवान, तेजस्वी, क्षमाशील, पवित्र, अनुरागी, धारणायुक्त और परीक्षित हो.

25) जिस प्रकार अधिक दूध दुहने से बछड़ा निर्बल होकर निकम्मा हो जाता है, उसी प्रकार अधिक कर (टैक्स) लगाने से राष्ट्र निर्बल हो जाता है और उसमें बड़े काम करने की शक्ति नहीं रहती.

26) दानी, दयावान, कर्मठ, ईमानदार, पुण्यात्मा, गुरु की स्त्री को सम्मान देने वाले, विपदा में पड़े भाई-बंधुओं का साथ देने वाले, लज्जानिहित, आस्तिक, वेदज्ञानी, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, लोगो से प्रेम करने वाले, कार्य के समय सावधान, बुद्धिमान, शुद्ध चित्तवाले, मित्रों से सदा संतुष्ट रहने वाले, सूरा न पीनेवाले, मित्रता करनेवाले, कृतज्ञ, प्राणी से प्रेम में रत मनुष्य जन समाज में उत्तम समझे जाते हैं, अतः ऐसे लोगों से मित्रता करें.

27) निरालसी, कार्यदक्ष, क्रोध-विवर्जित, देवताओं की आराधना में निष्ठावान, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, उद्योगी, पराकर्मी और विचारशील मनुष्यों के घर लक्ष्मी वास करती है.

28) अपने धर्म के प्रति निष्ठावान, वृद्धों की सेवा में लगी हुई, कृतज्ञ, क्षमाशीला, सत्स्वभाव-संपन्ना, सरला, देव-ब्राह्मणों को पूजनेवाली स्त्रियों के पास लक्ष्मी सदा रहती है.

दोस्तों, अगर हम गौर से भीष्म के उपदेशों का निरिक्षण करें, तो पाएँगे की हजारों साल पूर्व कही गई बातों की आवश्यकता आज हमारे परिवार, समाज, देश और समस्त संसार को अधिक है.

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