विचारणीय

गीता कहती है - संशयात्मा विनश्यति अर्थात् सदा संशय करनेवाला, दूसरों को संदेह की दृष्टि देखनेवाला, अविश्वासी एवं अनियंत्रित व्यक्ति क्षय को प्राप्त होता है।

मंगलवार, 3 जनवरी 2017

खाली हाथ जाना है - Empty Hand

गरीब सम्राट
आज से लगभग 2300 वर्ष पहले, सिकंदर विश्व विजेता का स्वप्न लिए अपने साथ हजारों सैनिकों एवं हथियारों के साथ यूनान से रवाना हुआ। रास्ते में तुर्की जैसे देशों को जीतता हुआ भारत की ओर बढ़ा। चूँकि उन्हें कहीं भी हार नहीं मिली इसलिए मनोबल भी काफी ऊँचा था। परंतु भारत में प्रवेश करते ही उन्हें यहाँ के वीरों ने सोचने पर मजबूर कर दिया। यहाँ उन्होंने राजा पुरू को काफी छल-कपट से परास्त किया। अब उसकी नजर पाटलिपुत्र, मगध और वैशाली पर थी। उन दिनों ये सारे भारत के समृध्द राज्यों की तालिका में शुमार थे।
रावी के तट पर उन दिनों एक साधू का वास था जो काफी प्रसिद्ध थे। यह बात सिकंदर के कान में पहुँची। अब उनमें साधू से मिलने की बेचैनी बढ़ने लगी। अपने एक अधिकारी को आदेश दिया।

सिकंदर (अधिकारी से) - आप अपने साथ एक सुसज्जित खूबसूरत रथ लेकर साधू के पास जाएँ और उन्हें हमारा न्योता दे। परंतु किसी भी प्रकार से उन पर दबाव न डाला जाए।

अधिकारी (झुककर) - जैसी आपकी आज्ञा सम्राट।

अगले ही पल अधिकारी साधू के आश्रम के पास था।

अधिकारी (विनम्रता पूर्वक साधू से) - नमस्कार, मैं विश्व विजेता सिकंदर महान का अधिकारी हूँ और आपके पास उनका एक सन्देश लाया हूँ। सम्राट ने अभी आपसे मिलने की इच्छा जताई है। इसलिए आप हमारे साथ चलें।

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साधू (शाँत मुद्रा में) - वत्स, मैं ठहरा एक साधू। मुझे दुनियादारी से क्या लेना? मैं प्रकृति की गोद में संतुष्ठ हूँ। आप जाकर अपने सम्राट से कह दीजिये कि यह वन ही मेरा डेरा है।

साधू की बातों ने अधिकारी के रौंगटे खड़े कर दिए। अधिकारी को डर था कि कहीं खाली हाथ वापस जाने पर सम्राट मौत की सजा न सुना दे। इसलिए अधिकारी ने कहीं प्रकार से साधू को मनाने का प्रयत्न किया परंतु वे न माने।

थक-हार कर अधिकारी अपने शिविर की ओर लौट गया और सम्राट को डरते-डरते पूरी बात बता दिया। कुछ पलों के लिए माहौल में सन्नाटा छा गया। तत्पश्चात सिकंदर अगले दिन स्वयं साधू से मिलने का निर्णय लिया।

अगले दिन हजारों घोड़ों, हाथियों व सैनिकों के साथ सिकंदर उस साधू की कुटिया पहुँचा। जाड़े का दिन था। तेज ठंडी हवा चल रही थी। सिकंदर ने देखा कि कैसे इस कड़ाके की ठंड में वह साधू एक लँगोटी पहने ध्यानमग्न था। वह साधू के नजदीक चला गया जिससे की धूप उन पर न पड़े।

साधू ने ध्यान भंग किया और सिकंदर की ओर देखा।

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साधू (सिकंदर से) - कौन हो वत्स?

एक अधिकारी - क्या आप इन्हें नहीं जानते? यह सम्राट सिकंदर हैं जो विश्व को विजय करते हुए भारत आये हैं।

सिकंदर (साधू से) - हे महात्मा, इस संसार में ऐसा कुछ नहीं जो मैं हासिल न कर सकूँ। इसलिए अगर आपकी कोई इच्छा हो तो बताइये। मै उसे जरूर पूरा करूँगा।

साधू ( विनम्रता पूर्वक) - हे राजन, आप ईश्वर की दी हुई सूर्य की किरणों को मुझ पर पड़ने से रोक रहें हैं कृपया मार्ग से हट जाएँ यही मेरी इच्छा है।

सिकंदर के आश्चर्य की सीमा न रही। वह साधू के आगे नतमस्तक हो गया nऔर अपने अशाँत मन की शाँति का उपाय पूछा।

साधू - तुमने अपनी महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिए न जाने कितने ही बच्चों को अनाथ और औरतों को विधवा बना दिया। कितनों ने अपने लड़कों को खोया। खेत उजड़ गए। मगर तुम्हारा मन संतुष्ट नहीं हुआ क्योंकि तुम्हारी तृष्णा अभी भी कायम है।

सिकंदर (हाथ जोड़कर) - क्या इसका कोई उपाय नहीं है मान्यवर?

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साधू - उपाय है। आज से 120 दिन बाद तुम्हारा जीवन समाप्त हो जायेगा। तुम अपने संबंधियों से भी नहीं मिल पाओगे क्योंकि मार्ग में ही एक गाँव में तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी। इसलिए जीवन के इस अल्प काल में तुमने जो कुछ गलत किया है उसे भुलाते हुए जरूरतमंदों की सेवा में लग जाओ। दीन-दुखियों की मदद करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा।

साधू के उपदेश का सिकंदर ने सम्मान करते हुए विश्व-विजय का सपना त्यागकर वापस लौटने का निश्चय किया। अब उसका मन शाँत था।

इतिहास के मुताबिक, बेबीलोन के एक गाँव में सिकंदर की मृत्यु हुई। मृत्यु से पहले सिकंदर ने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि उनके सारे आभूषणों, तलवार को उसके शव के पास सजाकर रखे और हाथों को चादर से बाहर रहने दे ताकि लोगों को ज्ञात हो कि विश्व-विजेता सम्राट सिकंदर अपनी सारी सम्पत्ति इसी संसार में छोड़कर खाली हाथ जा रहा है।

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