विचारणीय

गीता कहती है - संशयात्मा विनश्यति अर्थात् सदा संशय करनेवाला, दूसरों को संदेह की दृष्टि देखनेवाला, अविश्वासी एवं अनियंत्रित व्यक्ति क्षय को प्राप्त होता है।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

सर्वोपरि स्वंय के प्रति सत्यनिष्ट रहें

हर एक के जीवन में निष्ठा की अहम भूमिका है। निष्ठा की कोई पराकाष्ठा नहीं होती है। यह समय और परिस्थितियों के अनुरूप होता है। बिना निष्ठा के हम किसी भी कार्य को सफलता पूर्वक पूर्ण नहीं कर सकते। निष्ठा का अर्थ है – ईमानदारी।


एक शिष्य की तन-मन से कोशिश रहती है की वो अपने गुरु के प्रति निष्टावान रहे। यही कोशिश एक पिता की अपने परिवार के प्रति, एक पुत्र की अपने माता-पिता के प्रति, एक नागरिक की अपने वतन के प्रति, एक योगी की अपने आराध्य के प्रति अथवा एक कार्मिक की अपने मालिक के प्रति भी रहना स्वाभाविक है। परन्तु निष्ठा अथवा ईमानदारी का अर्थ ये कतई नहीं की हम केवल दुसरों के प्रति ईमानदार रहें। दूसरों के प्रति निष्टावान रहने से पूर्व हमें स्वयं के प्रति निष्टावान रहना अति आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति की यही कोशिश रहनी चाहिए की वो स्वयं के प्रति निष्टा को परखे और समयानुसार जरुरी संशोधन लावें।

एक व्यक्ति जब तक न चाहे उसमें कोई बदलाव नहीं ला पाता है। जब वह स्वयं चाहता है तब बाहरी कारकों का प्रभाव उस पर भी दिखलाई पड़ता है। ठीक उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति स्वयं के प्रति निष्ठा नहीं रखता तब तक अन्य भी उसकी निष्ठा पर संदेह करते हैं और ये स्वाभाविक ही है। इस बाबत एक वाक्य स्मृति पटल पर उजागर हो आया है जिसे मशहूर मार्सल कलाकार ब्रूसली ने कहा था, “हमेशा अपने वास्तविक रूप में रहो, खुद को व्यक्त करो, स्वयं पर भरोसा रखो, बाहर जाकर किसी और सफल व्यक्ति को मत तलाशो और उसकी नक़ल मत करो।”


एक छात्र के जीवन में निष्ठा की काफी अहमियत है। जो छात्र पूर्ण निष्टा के साथ गुरु को समर्पित हो जाता है वही अर्जुन कहलाता है। परन्तु अर्जुन को धनुर्विद्या में निपुणता केवल गुरु को समर्पण कर प्राप्त नहीं हुआ बल्कि समय-समय पर आत्म-अध्ययन के द्वारा प्राप्त हुई। यह एक प्रकार से स्वयं के प्रति निष्ठा का एक उदाहरण है। अपने सामर्थ्य और ज्ञान का अनुसरण करने पर सफलता अवश्य प्राप्त होती है।

जीवन की सर्वोपरि सफलता इसी बात में है कि मनुष्य अपने प्रति तन-मन-धन से सत्यनिष्टावान रहे। अल्बर्ट आइन्स्टिन को दुनिया पागल समझती थी। संसार को इनकी महानता देर से समझ आयी। परन्तु आइन्स्टिन ने स्वयं को परखने में समय नहीं गवांया। वे अपने व अपने कर्म के प्रति निष्टावान थे। इसी निष्ठा ने संसार को उनकी खोज के आगे नतमस्तक कर दिया। “विद्युत बल्ब का जनक” कहलाने वाले थॉमस अल्वा एडिसन को शुरु में मंत-बुद्धि बालक समझा जाता था, लेकिन अपनी सोच के प्रति निष्टा को कायम रखते हुए अथक परिश्रम के बल पर उन्होंने सारी दुनिया को एक दिन प्रकाशमय कर दिया। राइट बन्धुओं ने इसी निष्टा और विश्वास के दम पर जब हवाई जहाज में बैठकर उड़ान भरे तो पूरी दुनिया आश्चर्य के सागर में डूब गई। सच है, जो व्यक्ति स्वयं के प्रति ईमानदार नहीं रहते वह दुसरों का भी विश्वासपात्र नहीं बन सकता है। वह किसी भी कार्य को समयानुसार पूर्ण नहीं कर पाता और दूसरों से किये वायदे को भी पूर्ण न कर शर्मिन्दगी का पात्र बनता है। ऐसा मनुष्य परिवार, समाज, देश और संसार के मौलिक सिधान्तों को क्षति पहुँचाता है।


यह संसार नश्वर है और कुछ भी यहाँ शाश्वत नहीं। धनी, निर्धन, विद्वान, मूर्ख, निर्बल, बलवान सभी को एक दिन इस संसार से खाली हाथ विदा होना पड़ता है। धन-दौलत, वैभव-विभूति सब यहीं छूट जाता है। यह एक कटु अपितु सत्य वचन है। समय किसी की मोहताज नहीं, इसलिए आवश्यक है जितनी जल्दी हो सके हम सर्वोपरि स्वयं को ईमानदारी के साथ समझे और परखे और अपना कदम आगे बढ़ाएं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी की जीवनी हर किसी के लिए एक प्रेरणा सोत्र है। बचपन में कुसंगति में पड़कर उन्होंने गलतियाँ की जिनका समय रहते उन्हें ज्ञान हुआ और समय गवाएँ बगैर पिता को चिट्टी लिखकर अपनी भूल स्वीकार की। ऐसा साहस वो इसलिए कर पाये क्योंकि वे स्वयं के प्रति ईमानदार थे। उन्होंने स्वयं को जाना और उसी आत्म-साक्षरता के बल पर उन्होंने देश को गौरव पथ पर अग्रसर किया। जीवन तो वास्तव में उन्हीं लोगों का है, जिन्हें देखते ही अथवा जिनसे व्यवहार करने में आत्म-गौरव और अहोभाग्य का अनुभव करते हैं।

संसार के हर किसी स्थान पर हमें ऐसे बहुत से लोग दिख जाते हैं जो अपने धन-वैभव और पद-प्रतिष्ठा के कारण स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते दिखलाई देते हैं जो मात्र एक भ्रम है। लोग भय, लोभ, विवशता अथवा किसी और स्वार्थ की खातिर उन्हें दिखावे का सम्मान देते रहते हैं। व्यक्ति को चाहिए की वह लोभ, मोह आदि विकारों से मुक्त और निरहंकार होकर अपने अन्दर दृष्टि डाले और देखे कि क्या वह अपनी दृष्टि में स्वयं आदरणीय है भी या नहीं। 

इसी विषय पर कबीर दास जी का एक दोहा कहना चाहूँगा;
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

दोस्तों, क्या आपको नहीं लगता की हमलोग ego की खातिर अपनी बुराइयों को जानने के बावजूद दूसरों की बुराइयाँ ढूंढने में समय लगाते हैं. हम केवल तभी न्याय कर सकते हैं जब हम स्वयं में दूसरों में अंतर न करें. 
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