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बाय-बाय निराशा |
एक गुरु अपने गुरुकुल में शिष्यों को अस्त्र- शस्त्र की शिक्षा दे रहे थे। उनका एक प्रिय शिष्य था जिन्हें वो धनुर्विद्या की शिक्षा दे रहे थे। उन्होंने अपने उस प्रिय शिष्य को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का वचन दिया था।
एक भीलपुत्र ये सब बड़ी ही उत्सुकता से देख रहा था। जैसे-तैसे हिम्मत जुटाकर वह गुरुदेव के नजदीक गया और उसे भी अपना शिष्य बनाने का आग्रह किया। परंतु गुरुदेव ने यह कहकर मना कर दिया कि वे केवल कौरववंशियों को ही शिक्षित करने लिए वचनबद्ध हैं। भीलपुत्र गुरु को प्रणाम कर वहाँ से चला गया।
भीलपुत्र निराश नहीं हुआ। वह घर लौट जाने की बजाय वन में ही रहने का निश्चय किया। उसने गुरुदेव की एक मूर्ति बनाई और प्रतिदिन सुबह गुरुमूर्ति की स्तुति कर धनुर्विद्या प्रारम्भ किया और बहुत ही अल्प समय में एक निपुण धनुर्धर बन गया।
एक दिन गुरुदेव अपने शिष्योँ और एक कुत्ते के साथ आखेट के लिए उसी वन में पहुँच गए जहाँ वह भीलपुत्र रहकर अभ्यास करता था। गुरुदेव का कुत्ता राह भटक कर भीलपुत्र के आश्रम पहुँच गया। वह कुत्ता जोर-जोर से भौंक रहा था जिससे भीलपुत्र अभ्यास पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रहा था। इसलिए, उसने एक-एक कर कई तीरों को कुत्ते के मुँह में इस प्रकार छोड़ा कि उस कुत्ते का मुँह खुला का खुला रह गया। परंतु अब वह भौंक नहीं पा रहा था। इससे बड़ी आश्चर्य की बात यह कि उन तीरों से कुत्ते के मुँह में एक खरोंच तक नहीं आया।
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कुत्ता असहाय होकर गुरुदेव के पास जा पहुँचा। गुरुदेव और शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य मेँ पड़ गए। वे उस महान धुनर्धर को खोजते-खोजते उस भीलपुत्र के आश्रम पहुँचे और देखा की वह भीलपुत्र ऐसे बाण चला रहा था जैसे कोई श्रेष्ठ, पारंगत योद्धा चला रहा हो।
गुरुदेव के लिये यह एक चिंता का विषय बन गयी।
गुरुदेव ने भीलपुत्र से पुछा, "पुत्र तुमने ये सब कहाँ से सीखा? तुम्हारे गुरु कौन है?"
भीलपुत्र ने मूर्ति की ओर इशारा किया। गुरुदेव को बात समझते देर नहीं लगी।
गुरुदेव ने कहा, "तुम धन्य हो पुत्र!"
गुरुदेव ने आगे कहा - अगर तुम मुझे ही अपना गुरु मानते हो तो फिर गुरु दक्षिणा में अपना दाहिना अंगूठा दो। भीलपुत्र ने बिना हिचकिचाहट अपना अंगूठा गुरु को अर्पित कर दिया।
अंगूठा कट जाने के बाद भी भीलपुत्र ने अभ्यास नहीं छोड़ा। वह अब तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से आधुनिक तीरंदाजी के तरीके का उदय हुआ। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। इसलिए, उस भीलपुत्र को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगा।
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उपयुक्त पात्रगण किसी भी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हम सब इस कहानी से परिचित हैं। परंतु जो विशेष सीख हमें इससे मिलती है वह है 'निराशा को बाय-बाय' अर्थात् निराशा को अपने मन-मंदिर में कभी आने न दे।
दोस्तों, आज के इस अस्त-व्यस्त जीवन में थोड़ी सी कठिनाई आने पर हम निराश हो जाते हैं। याद रखिये, चेहरे पर निराशा का चिन्ह दिखाना हमें विफल बना सकता है। निराशा एक दानव की तरह मुँह खोलकर हमारे खुशियों को कभी भी निगलने आ सकता है। इस बिमारी से ग्रसित व्यक्ति अन्य सदगुणों के बावजूद जीवन में अधिक सफल नहीं हो पाता। तनिक विचार करें अगर वह भीलपुत्र, गुरुदेव के इंकार करने पर निराश होकर धनुर्विद्या का अभ्यास त्याग देता तो क्या हम आज एकलव्य के बारे में पढ़कर उनका गुणगान करते, नहीं न?
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अब सवाल उठता है कि इस भयंकर मानसिक रोग से मुक्ति कैसे मिले? दोस्तों, अगर निराशा से मुक्ति चाहिए तो सबसे पहले अपने विचारों का रुख बदलना होगा। सकारात्मक विचारों से हाथ मिलाना होगा और नाउम्मीदी से नाता तोड़ना होगा। निराशा अज्ञानता की देन है। जिस प्रकार सूरज का प्रकाश अन्धकार को हर लेता है ठीक उसी प्रकार ज्ञान का दीपक निराशा को समाप्त कर देता है।
दोस्तों, अगर आपके मन में किसी विषय को लेकर निराशा उत्पन्न हो रही है तो सबसे पहले उस निराशा की जड़ तक पहुँचे और उसके कारण को सकारात्मक विचारों से तोले, आपको हल मिल जायेगा।
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