विचारणीय

गीता कहती है - संशयात्मा विनश्यति अर्थात् सदा संशय करनेवाला, दूसरों को संदेह की दृष्टि देखनेवाला, अविश्वासी एवं अनियंत्रित व्यक्ति क्षय को प्राप्त होता है।

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

Geeta in Hindi


गीता का ज्ञान


दोस्तों, गीता को केवल एक ज्ञानवर्धक पुस्तक न मान कर इसे जीवन का दर्शन शास्त्र मानना सही होगा. घनी अँधेरी रात में यह हमें एक दीपक की भांति जीवन जीने की प्रेरणा देता है. काफी विचारने के बाद मैंने अपने ब्लॉग में इस विषय को चुना. इस ज्ञान को केवल महाभारत युद्ध से न जोड़कर अपने जीवन, जीने की पद्धति से जोड़े तो अधिक लाभदायक सिद्ध होगा.

Chapter 01:
प्रथम अध्याय को ‘अर्जुन-विषाद योग’ कहा गया है. मनुष्य यानि हम लोग संशय (confusion) में पड़कर अपने कर्तव्य से मुख मोड़ लेते हैं. इसलिए इस अध्याय को ‘संशय-विषाद योग’ भी कहना गलत न होगा. संशय का मुख्य कारण है मोह. कहीं बार मोह के वसीभूत होकर हम सही-गलत की पहचान नहीं कर पाते.

Chapter 02:
द्वितीय अध्याय को ‘कर्म-जिज्ञासा’ नाम भी दे सकते हैं. हमारा शरीर नस्वर है परन्तु हमारी आत्मा अमर है. चिंताओं और कष्टों से निजाद पाने के हमारे पास दो विकल्प हैं – पहला विकल्प, अपनी बुध्दि व विवेक द्वारा सही-गलत का अंतर जानते हुए अपना कर्म करना और दूसरा विकल्प, भक्ति के मार्ग में चलते हुए अपना कर्म करना. दोनों ही विकल्पों में कर्म को प्रधानता दी गयी है. परन्तु कर्म की परिभाषा क्या है ?

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Chapter 03:

राग-द्वेष से दूर, बिना किसी फल की इच्छा किये अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिये. काम-क्रोध, आशा-तृष्णा, राग-द्वेष हमारे शत्रु हैं. इन पर विजय पाने की प्रक्रिया को कर्म कहा गया है. इस अध्याय को ‘शत्रु-विनाश प्रेरणा’ कहना गलत न होगा.

Chapter 04:

प्रस्तुत अध्याय में कर्म के बंदन से मुक्ति के लिए दो विकल्प सुजाये गए हैं – पहला, किसी भी कर्म के आधारभूत ढाँचे की समझ एवं उसे बिना स्वार्थ के करना और दूसरा, कर्म के महत्व का अनुभव करना. श्रद्धालु, तत्पर, संयतेन्द्रिय एवं संशयरहित व्यक्ति ही कर्म से संबंधी ज्ञान को प्राप्त कर सकता है. इस अध्याय को ‘यज्ञकर्म स्पष्टीकरण’ नाम दिया गया है.

Chapter 05:

किसी भी व्यक्ति को अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्तिथियों में प्रसन्न अथवा दुखी नहीं रहना चाहिए. इस प्रकार की विचारधारा हमें इस संसार से बाँधे रखेगी. यह परम-आनंद की प्राप्ति में रोड़ा है. निष्काम भावना से किये जाने वाले कर्म को ‘कर्मयोग’ कहा गया है. इस अध्याय को ‘यज्ञभोक्ता महापुरुष महेश्वर’ नाम दिया गया है.

Chapter 06:
मन को वश में करना बहुत ही कठिन है परन्तु असंभव नहीं. एक व्यक्ति ध्यान (Meditation) के माध्यम से शांति (मोक्ष) की प्राप्ति कर सकता है. लगातार ध्यान के अभ्यास से मन को काबू में किया जा सकता है. इसलिए इस अध्याय का शीर्षक ‘अभ्यास योग’ सही  है.

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Chapter 07:

ईश्वर ही सबकुछ है और इस सत्य को जानने के लिए उन्नत बौद्धिक अनुशासन की आवश्यकता है. अगर PK की माने तो हमें उस ईश्वर के लिए हमेशा कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए जिसने हमें और इस संसार को बनाया न की उस ईश्वर की जिसे हमने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए बनाया है. आज की पीढ़ी इस बात से पूर्णता सहमत है. उपर्युक्त अध्याय को ‘समग्रबोधः’ ( समग्र जानकारी) नाम दिया गया है.

Chapter 08:
एक व्यक्ति का विचार उसके जीवन के अंतिम क्षणों में उसके इस संसार से विदाई की बेला को काफी प्रभावित करता है. इसलिए लोगों को चाहिए की वो ईश्वर को याद कर अपने कर्म में लग जाये. इस अध्याय को ‘अक्षर ब्रह्मयोग’ नाम दिया गया है.

Chapter 09:

प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की अनुभूति के योग्य है फिर चाहे वह किसी भी जाति, मत व प्रान्त का क्यों न हो. पमात्मा से मिलन को योग कहा गया है. इस अध्याय का शीर्षक ‘राजविद्या जागृति’ है.

Chapter 10:
जब कभी हमें इस संसार में कोई विशेष, अविश्वनीय, खुबसूरत अथवा महत्वपूर्ण बातें गठित होती दिखे तो उसे ईश्वर की कृपा समझ कर स्वीकार करें और उसी के मुताबिक विचार करें. उपर्युक्त अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने इक्यासी विभूतियों का वर्णन किया है, इसलिए इस अध्याय को ‘विभूति वर्णन’ नाम दिया गया है.

Chapter 11:
इस अध्याय को ‘विश्वरूप-दर्शन योग’ नाम दिया गया है. इस संसार में ईश्वर की महत्ता को स्वीकार करने के पश्चात ही हम ईश्वर के उस विराट स्वरुप (विश्वरूप) के दर्शन कर उनमें  रूपांन्तरित हो सकते हैं.

Chapter 12:
प्रत्येक श्रद्धालु अथवा भक्त जिसने अपनी देह, बुद्धि, अंतर्ज्ञान ईश्वर को समर्पित कर दिया हो उसकी बातें ईश्वर को भी स्वीकारना पड़ता है. इस अध्याय में भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है, इसलिए अध्याय को ‘भक्ति योग’ भी कहा जा सकता है.

Chapter 13:
इस अध्याय को ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग’ नाम दिया गया है. इस संसार में ईश्वरीय महत्ता की अनुभूति सर्वोपरी है. जिसने ऐसा कर लिया हो वह अमरत्व को प्राप्त हो जाता है. वह संसार की मोहमाया से मुक्ति पा 
लेता है.

Chapter 14:
सात्विक (अच्छाई), राजसिक (मोह) और तामसिक (अज्ञानता) प्रकृति के तीन गुण हैं. पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित भक्ति द्वारा इन तीन गुणों से ऊपर उठकर हम संसार के बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं. इस अध्याय को ‘गुणत्रय विभाग योग’ नाम दिया गया है.

Chapter 15:
इस अध्याय को ‘पुरुषोत्तम योग’ नाम दिया गया है. ईश्वर इस संसार के एकमात्र सृष्टिकर्ता हैं. इस सच्चाई को विभिन्न महापुरुषों ने अलग-अलग दृष्टी से लोगों को समझाने का प्रयत्न किया है.

Chapter 16:
इस अध्याय को ‘दैवासुर संपद्विभाग योग’ नाम दिया गया है. मनुष्य के दो स्वभाव होते हैं - दैविक (अच्छा स्वभाव) और असुरी (बुरा स्वभाव). मनुष्य अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म करता है और कर्मो के अनुरूप जीवनचक्र के 84 लाख योनियों में जन्म लेकर दुःख भोगता है. इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति जरुरी है.

Chapter 17:
ईश्वर और ईश्वर की प्रभुता पर श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति को किसी भी शुभ कार्य को शुरू करने से पूर्व ईश्वर का स्मरण कर  लेना चाहिए. इस अध्याय को ‘ॐ तत्सत् श्रद्धात्रय विभाग योग’ नाम दिया गया है.

Chapter 18:
जब एक व्यक्ति पूर्ण रूप से एक सन्यासी की तरह इस संसार की मोहमाया से दूर ईश्वर की शरण में चला जाता है तब वह हर पाप से मुक्त हो जाता है. उपर्युक्त अध्याय को ‘संन्यास योग’ नाम दिया गया है.

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